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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 मध्यलोक एवं उर्ध्वलोक तीनों लोकों में पाये जाते हैं।अधोलोक में भवनवासी देवों के दस भेदों में दस प्रकार के चैत्यवृक्ष पाये जाते हैं। जिनमें अश्वत्थ, सप्तपर्ण, शाल्मली, जम्बू, वेतस, कदंब,प्रयंगु, सरिस, पलाश, राजद्रुम ये दस चैत्य वृक्ष पाये जाते हैं। ये चैत्यवृक्ष असुरकुमारादि के क्रमशः पाये जाते हैं। कहा हैभवनवासी देवों के चैत्यवृक्ष के मूल में प्रत्येक दिशा में पाँच-पाँच प्रतिमा पर्यक आसन से विराजमान हैं। तथा प्रत्येक दिशा में प्रत्येक प्रतिमा के आगे एक मानस्तंभ है, उन मानस्तंभ के प्रत्येक दिशा में सात-सात उत्तम रत्न की प्रतिमा विराजमान है। इस प्रकार एक चैत्यवृक्ष के चारों दिशाओं में २० प्रतिमाएँ और २० मानस्तंभ हैं तथा २० मानस्तंभ में प्रत्येक दिशा में सात-सात प्रतिमा के कारण एक मानस्तंभ में २८ प्रतिमाएँ तथा २० मानस्तभ में ५६० प्रतिमाएँ होती हैं। तथा चैत्यवृक्ष में २० प्रतिमाएं मिला देने से ५८० प्रतिमाएं होती हैं। अतः यह कह सकते हैं मानस्तंभ की एक दिशा में सात प्रतिमा होने से मानस्तंभ भी सात मंजिल का हो सकता है। व्यंतर देवों के आठ भेदों में आठ प्रकार के चैत्य वृक्ष क्रमशः पाये जाते हैं जिनमें अशोक,चंपा, नागकेसरि, तुंवडी,वट,कंटतरु, तुलसी, कदंब। व्यंतर देवों के चैत्यवृक्ष में प्रतिमाओं की संख्या भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों से भिन्न हैं।कहा है कि चैत्यवृक्ष के चारों ओर चार-चार तथा प्रत्येक प्रतिमा के आगेमानस्तंभ के तीनकोट होते हैं। प्रत्येक कोट में चार-चार प्रतिमाएं होती हैं। अर्थात् चैत्यवृक्ष के चारों दिशाओं में १६ प्रतिमाएं एवं १६ मानस्तंभ हैं तथा सोलह मानस्तंभ में ४८ कोट तथा ४८ कोटों में १९२ प्रतिमाएं विराजमान है। इस प्रकार १९२ तथा १६ प्रतिमाओं के योग से २०८ प्रतिमाएंहोती हैं। तथा वैमानिक देवों में चार प्रकार के चैत्य वृक्षों के नाम चैत्य वृक्ष होते हैं। त्रिलोक सार में कहा है कि सौधर्मादिक इन्द्रों के चारों वन में चार चैत्य वृक्ष होते हैं। इन चैत्य वृक्षों का माप जम्बू वृक्ष के समान है। तथा वनखंड पदम तालाब के समान विस्तार वाला है। अर्थात् मेरु पर्वत की ईशान दिशा में जम्बू वृक्ष है।१३ जम्बू वृक्ष ५०० योजन की स्थली में फैला हुआ है। जिसका ऊँचाई १० योजन की तथा मध्य में ६ योजन चौड़ा तथा ऊपर ४ योजन चौड़ा है। तथा वनखंड १००० योजन लम्बा तथा ५०० योजन चौड़ा है।