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________________ ना लोकानुप्रेक्षा में वास्तु विद्या सतेन्द्र कुमार जैन भूमिकाः जैनदर्शन चिंतन मनन की परम्परा की अद्वितीय स्थान है। इसमें क्रिया से अधिक चिंतन और मनन को बल दिया गया है। व्यक्ति चाहे चिंतन के द्वारा पुण्य कमा सकता है और चाहे तो चिंतन से पाप भी कमा सकता है। इसी परम्परा में अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग आचार्यों ने किया है। अनुप्रेक्षा से अपने ज्ञान का परिमार्जन किया जा सकता है।इस अनुप्रेक्षा के बारह भेद कहे हैं। जिसमें लोकानुप्रेक्षा में स्वर्ग, नरक, मध्यलोक, आदि के वर्णन का चिंतन किया जाता है। लोकानुप्रेक्षा में लोक में स्थित भवनों, उत्तम स्थानों, जिनालयों आदि का चिंतन लोकानुप्रेक्षा है। इसमें बनावट आदि के आकार-प्रकार का चिंतन कर वास्तु का ज्ञान भी किया जा सकता है। लोकानुप्रेक्षा का स्वरूपः जाने गए अर्थ का मन में अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है' तथा अनंतानंत जो आकाश है उसके बहुत मध्य के प्रदेश में घनोदधि, घनवात और तनुवात वलय नामक तीन पवनों में वेष्टित आदि और अंतरहित, अकृत्रिम, निश्चल और असंख्यात प्रदेश का धारक लोक है। उसके आकार का बार-बार चिंतन करने को लोकानुप्रेक्षा कहते हैं । नीचे मुख किए हुए आधे मृदंग के ऊपर पूरा मृदंग रखने पर जैसा आकार होता है वैसा आकार लोक का है, परन्तु मृदंग गोल है और लोक चौकोर है, यह भेद है। इस प्रकार लोकानुप्रेक्षा में लोक का ही चिंतन मुख्यतः से किया जाता है। लोकानुप्रेक्षा का विषय एवं प्रयोजनः लोकानुप्रेक्षा में तीन लोक के स्वरूप का तथा उसमें अकृत्रिम चैत्यालय, देवभवन, स्वर्गों की ऊँचाई आदि, देवों के अस्तित्त्व का तथा मध्य लोक में पंचमेरु अकृत्रिम IL
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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