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मूलाचार में दिगम्बर जैन मुनियों का अर्थशास्त्र
-श्रीमतीउर्मिलाचौकसे
संसार के समस्त साधुओं में दिगम्बर जैन साधुओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि वे ही एक ऐसे हैं जो यथाजात रूप को धारण करते हैं। स्वावलम्बन का जीवन जीते हैं। उनके आचार, विचार, आहार, व्यवहार में जो विशिष्टता है वह अन्यत्र देखने में नहीं मिलती। हिन्दुओं में भी नागा साधु होते हैं जो नग्न रहते हैं किन्तु उनके आचार, आहार पर प्रश्न चिन्ह लगते हैं इसके अतिरिक्त दिगम्बर मुनि को जो महत्त्वपूर्ण बनाती है वह है उनकी अयाचक वृत्ति एवं उनकी अर्थ के प्रति उपेक्षा धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा उन्हें जन-जन का पूज्य बनाती है। नीतिकार कहते हैं कि -
गुरवो बहवः सन्ति शिष्यवित्तापहारकाः । गुरुवो विरलाः सन्ति शिष्यहृदितापहारकाः ॥
अर्थात् शिष्यों के धन का अपहरण करने वाले गुरु बहुत से हैं किन्तु शिष्य के हृदय के ताप का हरण करने वाले गुरु बिरले ही होते हैं।
संसार में भक्ति, व्रत एवं धर्म का प्रयोजन एक ही होता है और वह है- जन्म-जरा-मरण का क्षय। मुनि रामसिंह विरचित अपभ्रंश भाषा की अनुपम कृति 'पाहुडदोहा' में आया है कि -
अंतोत्थि सुईण कालो थोओ वयं च दुम्मेहा ।
तं णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणक्खयं कुणदि ॥'
अर्थात् शास्त्रों का अन्त नहीं है समय थोड़ा है और हम दुर्बुद्धि हैं, अतः केवल वही सीखना चाहिए, जिससे जन्म-मरण का क्षय हो ।
जन्म मरण के क्षय के लिए संसार से विरक्ति आवश्यक है। संसार में रहते हुए संसार को छोड़ने का भाव बना रहे जिससे मुक्ति मिले; यह आवश्यक है। संसार में दो शास्त्रों की मुख्यतः है, अनिवार्यता है और आवश्यकता है। इनमें से एक धर्मशास्त्र और दूसरा है अर्थशास्त्र । इनमें धर्मशास्त्र जीवन को स्वेच्छाचारिता से नियंत्रित करता है तो दूसरा अर्थशास्त्र जीवन जीने में सहायक बनता है, साधक बनता है। धर्मशास्त्र सब कुछ है जबकि अर्थशास्त्र कुछ कुछ है। इसीलिए जहाँ धर्मशास्त्र को सब मान्यता देते हैं, मानते हैं वहीं अर्थशास्त्र की भी साधन के रूप
में अनिवार्यता होने पर भी उसकी कटु आलोचना भी करते हैं। ऐसे आलोचक कहते हैं कि
१. अर्थ अनर्थ करता और कराता है।
२. रस्किन (Raskin) और कार्लाइल अर्थशास्त्र को कुबेर की विद्या, घृणित विज्ञान कहते हैं।
३. चार्ल्स डिकिन्स अर्थशास्त्र को 'रोटी मक्खन का विज्ञान' कहते हैं।