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अनेकान्त 66/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2013
चलता है। प्रतीत होता है कि मथुरा जैनधर्म और कला का प्राचीन केन्द्र था । श्रीवास्तव के अनुसार- सारी अमूल्य निधियां अब लखनऊ के राज्य पुरातत्व संग्रहालय में दर्शित है। मथुरा के उक्त टीले के उत्खनन से जैन शिल्प की जो अद्भुत सामग्री मिली उनमें एक जैन स्तूप, दो प्रासाद व जैन मंदिरों के अंकल चित्र मिले थे। इनमें आरहवें तीर्थकर अरनाथ स्वामी की मूर्ति की चौकी पर एक लेख में यह अंकित है कि - कोट्टियगण की वज्री शाखा के वाचक आर्य वृहस्ती कीप्रेरणा से एक श्राविका ने देव निर्मित स्तूप में अर्हत की मूर्ति स्थापित की। मूलतः यह लेख संवत् ८९ का है, जो कुषाण सम्राट वासुदेव के शासन काल का १६७ ई. का है। ये सामग्री ठीक ईसापूर्व दूसरी सदी से लगातार ११वीं सदी तक मिलती है। इनमें निम्न मूर्तियों का विश्लेषण, लक्षण प्रस्तुत है। ये लक्षण अब सार्वजनिक रूप से पठन में नहीं आ पाते हैं।
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आयांगपट्ट
पाषाण के चौकोर टुकड़ों पर केन्द्र में चक्र, स्वास्तिक व तीर्थकर मूर्ति को घेरकर उसमें श्रीवत्स्, मीन मिथुन, नन्द्यावर्त पूर्णघट, माला, भद्रासन आदि अष्टमांगलिक चिन्हों को उकेरा गया है। इनकी स्थापना अर्हत की पूजा हेतु बताई गई है। इस आधार पर श्रीवास्तव ने इन आयांगपट्टों को जैन पूजा के प्रथम सोपान माना है। उन्होंने इस तथ्य को प्रस्तुत किया कि पूर्व में प्रतीक पूजा का प्रचलन था बाद में इन आयांगपट्टों पर केन्द्र में पालथी मारकर ध्यान में बैठे तीर्थकरों को उकेरा जाने लगा और फिर बाद में उनकी स्वतंत्र मूर्तियाँ भी गढ़ी जाने लगी। जैन तीर्थकर मूर्तिया
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मूर्ति विशेषज्ञों की प्रबल धारणा रही है कि जैन तीर्थंकरों की प्रथम मूर्तियाँ मथुरा में ही बनाई गई थी। इनके प्रारम्भिक प्रमाण कंकाली टीले से मिले है। इनमें कुषाणकालीन मूर्तियों की संख्या अधिक है। ये तीर्थकर मूर्तियाँ तीन प्रकार की थी। १. पालथी मारकर ध्यानमुद्रा में बैठी हुई । २. कार्योत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई तथा ३. सर्वतोभद्र मुद्रा में अर्थात् एक ही पाषाणफलक पर पीठ से पीठ मिलाकर खड़ी चार चौमुखी जैन मूर्तियाँ ।
लांछन
मथुरा की आरम्भिक तीर्थंकर मूर्तियां एक समान थी। अतः उनकी पहचान कर पाना दुष्कर था और कुषाणकाल तक तो तीर्थकर मूर्तियों पर लांछनों का अंकन