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भारतीय मूर्तिकला में जैन मूर्तियों के लक्षण
ललित शर्मा
'जिन' के अनुयायियों को जैन तथा 'जिनों' द्वारा स्थापित धर्म को जैनधर्म के नाम से जाना गया है।जैनधर्म के ऐसे महान महापुरूषों को तीर्थकर या केवली कहा गया है।ये तीर्थकर २४ हुए हैं जिनकी धारणा ही जैनधर्म की धुरी है।अन्य जैन देवों की संकल्पना भी इन्हीं जिनों से सम्बद्ध है। ___ गुप्तोत्तर काल में इन २४ तीर्थकरों की पहचान के निमित्त उनके लांछनों, यक्षों और शासन देवियों का निर्धारण किया गया, जिनमें १ से २४ तक महान तीर्थंकरों की मूर्तियों के लक्षण तथा यक्ष व यक्षी (शासन देवी-दिगम्बर-श्वेताम्बर) निर्धारित की गई। निर्धारण का यह क्रम व तालिका जैनधर्म के इतिहास विषयक ग्रन्थों में आसानी से देखी, परखी तथा समझी जा सकती है। अतः हम उनकी यहाँ चर्चा न करके मूर्तियों के लक्षणों की ही चर्चा करेंगे।
जैन साहित्य के साक्ष्यों पर गौर किया जाये तो ज्ञात होता है कि अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी की मूर्ति को उनके जीवनकाल में ही निर्मित करवा दिया गया था, जिसे जैन धर्मावलम्बियों में जीवन्त स्वामी कहा गया। विद्वान पुरातत्वविद् डॉ.ए. एल. श्रीवास्तव (भिलाई) से जब जैन मूर्ति लक्षणों विषयक मैंने विशिष्ट निर्देश प्राप्त किये तब इस आधार पर प्रामाणिक रूप से यह माना जाताहै कि जैन तीर्थकर मूर्तियों में अभी तक सर्वाति प्राचीन,बिहार के लोहानीपुर से प्राप्त मौर्ययुगीन नग्न (दिगम्बर) धड़ को माना जाता है। इसका मूल कारण भी यह माना गया कि तीर्थकर दिगम्बर ही थे। विद्वान वासुदेवशरण अग्रवाल ने मथुरा की जैन मूर्तिकला पर विशद प्रकाश डाला है। उनकी जैनकला विवेचना से यह प्रामाणित होता है कि मथुरा के कंकाली टीले से कुषाणकालीन जैन स्तूप खण्ड, आयांगपट्ट, तीर्थकर मूर्तियाँ मिली थी।इन पर कुछ ऐसे शिलालेख पठन में आये जिनमें वहाँ देवनिर्मित स्तूप के निर्माण के प्रमाणों का भी पता