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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
होती है-यह विपरीत मिथ्यादर्शन है।सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी एकतामोक्षमार्ग है या नहीं-ऐसा मानना संशय मिथ्यात्व है।सभी देवों को और सभी धर्मों को समान मानना वैनयिक मिथ्यात्व है। हिताहित का परीक्षण न करना अज्ञान मिथ्यात्व है।
इन पाँच प्रकार के मिथ्यादर्शनों में से संशय नामक मिथ्यादर्शन को ही श्रद्धानात्मक संशय कहते हैं। ज्ञानात्मक संशय को मिथ्याज्ञान कहते हैं और श्रद्धानात्मक संशय को मिथ्यादर्शन कहते हैं।
विचारणीय है कि ज्ञानात्मक संशय(मिथ्याज्ञान) और श्रद्धानात्मक संशय में मूलभूत अन्तर क्या है?
दरअसल बात यह है कि सामान्यतः किसी भी विषय को जानने में जो संशय होता है उसे ज्ञानात्मक संशय कहते हैं किन्तु जब वही संशय किसी मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत विषय के सम्बन्ध में होता है तो उसे श्रद्धानात्मक संशय कहते हैं, क्योंकि उसमें मात्र ज्ञानावरण कर्म का उदय निमित्त नहीं होता, मोहनीय कर्म का उदय भी निमित्त होता है। श्रद्धानात्मक संशय की अवधारणा तो जैनाचार्यों की ही विशिष्ट देन है। संदर्भः
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, सूत्र १/३ २. न्यायदीपिका,१/८ ३. न्यायदीपिका,१/९ ४. कविवर दौलतराम, छहढाला ४/६ ५. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अध्याय १, सूत्र ११, श्लोक ३५३, ३५५ ६. आचार्य माणिक्यनन्दि, परीक्षामुखसूत्रम् ३/१७ ७. वही, १/५ ८. आचार्य अकलंक, तत्त्वार्थवार्तिकम् १/१५/९ ९. मोक्षपंजिका ५ १०. सूर्यप्रज्ञप्ति, मलयगिरिवृत्ति, २, पृष्ठ ५ ११. सप्तभंगीतरंगिणी, पृष्ठ ६ १२. मल्लिषेणसूरि, स्याद्वादमंजरी,१७ १३. न्यायदीपिका २/११ १४. तत्त्वार्थवार्तिकम् १/१५/९ १५. वही, १/१५/१० १६. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि ८/१
- प्राध्यापक- जैनदर्शन विभाग, ला.ब.शा. संस्कृत विद्यापीठ,
नई दिल्ली-११००१६