________________
अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
नाऽयं संशयः, विषयान्तरव्युदासेन स्वविषयनिश्चयात्मकत्वात्।तद्विपरीतलक्षणो हि संशयः। १३ ___ अर्थात् इन्द्रिय और अर्थ के मिलन के तुरन्त बाद होने वाला और सत्तावलोकन के बाद अवान्तर सत्ताको विषय करनेवाले ज्ञानविशेष को अवग्रह कहते हैं। जैसे- यह पुरुष है। यह अवग्रह संशय नहीं है, क्योंकि इसमें अन्य विषय नहीं है और अपने विषय का निश्चय है।संशय इससे विपरीत होता है।
१. “अनेकार्थानिश्चिताऽपर्युदासात्मकः संशयस्तद्विपरीतोऽवग्रहः।१४ २. “संशयो हि निर्णयविरोधी नत्ववग्रहः।"१५
अर्थात अनेक अर्थों में अनिश्चयरूप संशय होता है,जबकि अवग्रह इससे विपरीत होता है।संशय ही निर्णय-विरोधी होता है, न कि अवग्रह।इस प्रकार संशय के प्रधान भेद ज्ञानात्मक संशय का स्वरूप हुआ।अब संशय के द्वितीय भेद श्रद्धानात्मक संशय का स्वरूप समझने का प्रयत्न किया जाता है। ___ कहा जा चुका है कि श्रद्धानात्मक संशय श्रद्धा का दोष है जिसे जैन-ग्रन्थों में मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन भी कहा सकता है।जैनदर्शन के अनुसार मिथ्यात्व ५ प्रकार का होता है
१. एकान्तमिथ्यादर्शन। २. विपरीतमिथ्यादर्शन। ३. संशयमिथ्यादर्शन। ४. वैनयिकमिथ्यादर्शन। ५. अज्ञानिकमिथ्यादर्शन। इन पाँचों का स्वरूप इसप्रकार बताया गया है-“तत्र इदमेव इत्थमेवेतिधमिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः।पुरुष एवेदं सर्वइति वा नित्य एव वा अनित्य एवेति।सग्रन्थोनिर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी,स्त्री सिद्ध्यतीत्येवमादिः विपर्ययः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रणि किंमोक्षमार्गःस्याद्वानवेत्यन्तरपक्षापरिग्रहःसंशयः। सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च समदर्शनं वैनयिकम्। हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम्।'१६
अर्थात् यही है या ऐसा ही है-ऐसाधर्म-धर्मी का एकान्तिक श्रद्धान एकान्त मिथ्यादर्शन है। जैसे- यह सब पुरुष ही है अथवा वस्तु नित्य अनित्य ही है। साधु परिग्रही होते हैं, केवली कवलाहारी होते हैं,स्त्री को तद्भव-मुक्ति प्राप्त