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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
दो ही कोटियों का स्पर्श होना आवश्यक नहीं है.दो का भी हो सकता है और दो से अधिक का भी हो सकता है। ___ इसी प्रकार कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि इन कोटियों में से एक सत्य होती है और एक असत्य। परन्तु यहाँ ऐसा भी कुछ नहीं कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि संशयज्ञान की ये कोटियाँ सबकी सब असत्य भी हो सकती हैं। यह आवश्यक नहीं है कि उनमें एक सत्य ही हो। यह बात उदाहरण से भी सहज समझ में आती है। यथा-किसी को संशय होता है कि यह सीप है या चाँदी। यहाँ यह हो सकता है कि वह वस्तु दोनों ही न हो, एल्युमिनियम, पन्नी आदि कुछ और ही चमकीली वस्तु हो। __ किन्तु यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि संशयज्ञान की सभी कोटियाँ असत्य होते हुए भी सर्वथा असत्य(असत्) नहीं होती, उन-उन अर्थोकीलोक में सत्ता अवश्य होती है,सर्वथा असत् वस्तु का संशय नहीं होता। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने संशय के द्वारा भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की है। यथा"सत्यपि संशये तदालम्बनादात्मसिद्धिः। न हि अवस्तुविठ्ठायः संशयो भवति। ५२
इस प्रकार संशयज्ञान मिथ्या होते हुए भी वस्तु की सत्ता को सिद्ध करता है- यह बड़ी अद्भुत बात है। ___ संशय के सम्बन्ध में एक अन्य भ्रान्ति यह है कि कुछ लोग जिज्ञासा या प्रश्न को भी संशय समझलेते हैं, परन्तु वास्तव में देखा जाए तो जिज्ञासा संशय नहीं है। जिज्ञासा और संशय में बहुत अन्तर है। जिज्ञासा में जानने की इच्छा है, प्रश्न का उत्तर बताने का निवेदन है, परन्तु संशय में ऐसी कोई बात नहीं है।
दरअसल ज्ञान के अनेक रूप होते हैं-जिज्ञासा, प्रश्न, संशय आदि। हमें इन सब में विद्यमान सूक्ष्म अन्तर को समझना चाहिए।
इसी प्रकार कुछ लोग अवग्रह ज्ञान को भी जो कि मतिज्ञान का एक (प्रथम) भेद है, संशय समझ लेते हैं, परन्तु संशय और अवग्रह ज्ञान में भी बड़ा अन्तर है, अवग्रह ज्ञान संशय ज्ञान नहीं है। जैसा कि आचार्य अभिनव धर्मभूषण यति ने भी स्पष्ट कहा है___ “तत्रेन्द्रियार्थसमवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनान्तरभावी सत्ताऽवान्तरजातिविशिष्टवस्तुग्राही ज्ञानविशेषोऽवग्रहः- यथाऽयं पुरुष इति।