________________
अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय को कहीं-कहीं संशय, विभ्रम, मोह शब्दों से भी कहा है यथा -
"संशय विभ्रम मोह त्याग आपौ लखि लीजै।" 'मोह' को भी कहीं-कहीं 'विमोह' शब्द से भी कहा गया है। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने विमोह या अनध्यवसाय को अव्युत्पत्ति' शब्द से भी कहा है।५ आचार्य माणिक्यनन्दी को भी अनध्यवसाय के लिए 'अव्युत्पत्ति' शब्द इष्ट रहा है।यथा-“संदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां....." ___ कहने का तात्पर्य है कि मोह, विमोह, अव्युत्पत्ति और अनध्यवाय-ये सभी पर्यायवाची हैं।संशय, विपर्यय,अनध्यवाय-इन तीनोंको जैन ग्रन्थों में समारोप'शब्द से भी जाना जाता है।जैसाकि परीक्षामुखसूत्र' के निम्नलिखित सूत्र में कहा गया है- 'दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक्।' अर्थात् देखा-जाना हुआ अर्थ भी यदि ‘समारोप' लग जाए तो पुनः अपूर्वार्थ हो जाता है। यहाँ ‘समारोप' शब्द का अर्थ संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय है। इस प्रकार संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय की चर्चा प्रायः सर्वत्र एक साथ ही उपलब्ध होती है, परन्तु यहाँ हमारा प्रयोजन मात्र ‘संशय' का ही स्वरूप स्पष्ट करना है, विपर्यय और अनध्यवसाय की चर्चा पृथक रूप से फिर कभी करेंगे। अथवा उसे प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाला आदि ग्रन्थों से देखना चाहिए।
संशय का एक लक्षण न्यायदीपिका' ग्रन्थ से ऊपर उद्धृत किया जा चुका है। इसी प्रकार के लक्षण अन्य भी अनेक जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। जिनमें से कतिपय प्रमुख लक्षण इस प्रकार है -
१. “अनेकार्थानिश्चितापर्युदासात्मकः संशयः।८ २. “अनवस्थितकोटीनामेकत्र परिकल्पनाम्।शुक्ति वा रजतं किं वेत्येव ___संशीतिलक्षणम्।” ३. “संशयो नामानवधारितार्थज्ञानम्। १० ४. “एकधर्मिकविरुद्धनानाधर्मप्रकारकं ज्ञानं ही संशयः।।११ ध्यातव्य है कि प्रायः लोग ऐसा कहते हैं कि संशय दो कोटियों को स्पर्श करने वाला होता है, परन्तु यहाँ दो' या उभय' पद का प्रयोग नहीं किया गया है, बल्कि अनेक' पद का प्रयोग किया है। इससे सिद्ध होता है कि संशय में