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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 है, उसका बाल की नोक के बराबर भी खण्डन किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता
“संशय सर्वप्राणिनां चलितप्रतिपत्त्यात्मकत्वेन स्वात्मसंवेद्यः। सः धर्मिविषयो वस्तु धर्मविषयो वा तात्त्विकातात्त्विककार्यविषयो वा किमेभिर्विकल्पैरस्य बालाग्र मपि खण्डयितुं शक्यते ? प्रत्यक्षसिद्धस्याप्यर्थस्वरूपस्यापह्नवे सुखदुःखादेरप्यपह्नवः स्यात्।" __ इस प्रकार संशय की सत्ता सिद्ध करने के बाद जैनाचार्यों ने संशय के स्वरूप का विचार किया है।
जैनाचार्यों के अनुसार संशय दो प्रकार का होता है-१.ज्ञानात्मक और २. श्रद्धानात्मक।ज्ञानात्मक संशय को ज्ञान का दोष या मिथ्याज्ञान भी कहते हैं और श्रद्धानात्मक संशय को श्रद्धा का दोष या मिथ्यादर्शन भी कहते हैं।
दर्शन-जगत में मुख्यतया ज्ञानात्मक संशय की हीचर्चा होती है।ऊपर कही गई ‘प्रमेयकमलमार्तण्ड' की चर्चा भी मुख्यतः ज्ञानात्मक संशय की ही चर्चा है।जैन-न्याय-ग्रन्थों में सर्वप्रथम प्रमाण-विचार करते हुए ‘सम्यग्ज्ञान' को ही प्रमाण का समीचीन लक्षण माना गया है और कहा गया है कि 'सम्यग्ज्ञान' में 'सम्यक' पद का प्रयोग संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय रूप मिथ्याज्ञानों की निवृत्ति के लिए किया गया है। यथा- “अत्र सम्यक्पदं संशयविपर्ययानध्यवसायनिरासाय क्रियते अप्रामणत्वादेतेषांज्ञानानामिति।"२
इसके बाद वहाँ संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय- इन तीनों मिथ्याज्ञानों कास्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-“विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानंसंशयः, यथा स्थाणुर्वा पुरुषोवेति।स्थाणुपुरुषसाधारणोर्ध्वतादिधर्मदर्शनात्तद्विशेषस्य वक्रकोटिशिरःपाण्यादेःसाधकप्रमाणभावादनेककोट्यवलम्बित्वंज्ञानस्य। विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः, यथा शुक्तिकायामिदंरजतमिति ज्ञानम्।
अत्रापि सादृश्यादिनिमित्तवशाच्छुक्तिविपरीते रजते निश्चयः। किमित्यालोचनमात्र-मनध्यवसायः, यथा पथिगच्छतस्तृणस्पर्शादिज्ञानम्।इदं हि नानाकोट्यवलम्बनाभावान्न संशयः। विपरीतैककोटिनिश्चयाभावान्न विपर्यय इति पृथगेव।एतानि च स्वविषयप्रमितिजनकत्वाभावादप्रमाणानि ज्ञानानि भवन्ति, सम्यग्ज्ञानानि तु न भवन्तीति सम्यक्पदेन व्युदस्यन्ते।"३