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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
भीड़ में सबसे पीछे सामान्य धूमिल वस्त्र धारण किये हुए एक दरिद्र वृद्धा, जो बड़ी उमंग के साथ अभिषेक करने आई थी किन्तु भीड़ देखकर वह पीछे ही रह गई थी, उस घोषणा से उसे भी अभिषेक का सुअवसर मिल गया। उसके पास मूल्यवान् धातुका घड़ा नहीं, केवल एकनारियलमात्र था।टिरकते-टिरकते मंच पर पहुँची और निष्काम-भक्ति के आवेश में भरकर जैसे ही उसने नारिकेल-जल से परम आराध्य बाहुबली का भक्तिभाव से अभिषेक किया, उससे वह मूर्ति आपाद-मस्तक सराबोर हो गई। यह देखकर सर्वत्र जय-जयकार होने लगा। हर्षोन्मत्त होकर नर-नारीगण नृत्य करने लगे। ___चामुण्डराय ने उसी समय अपनी गलती का अनुभव किया और सोचने लगा कि सचमुच ही मझे,सुन्दरतम मूर्ति-
निर्माण तथा उसके महामस्तकाभिषेक में अग्रगामी रहने तथा कल्पनातीत सम्मान मिलने के कारण अभिमान हो गया था।उसी का यह फल है कि सबके आगे मुझे अपमानित होना पड़ा है। इतिहास में इस घटना की चर्चा अवश्य आयेगी और मेरे इस अहंकार को भावी पीढ़ी अवश्य कोसेगी। उसी समय चामुण्डराय का अहंकार विगलित हो गया। वह माता गुल्लिकाज्जयी के पास गया। विनम्र-भाव से उसके चरण-स्पर्श किये, उसकी बड़ी सराहना की और उसकी यशोगाथा को स्थायी बनाये रखने के लिए उसने आँगन के बाहर, गोम्मटेश के ठीक सामने उसकी मूर्ति स्थापित करा दी। यही नहीं,गोम्मटेश की मूर्ति के दर्शनों के लिए दर्शनार्थी-गण जब जाने लगते हैं, तब प्रारंभ में ही जो प्रवेश-द्वार बनवाया गया, उसका नामकरण भी उसी भक्त-महिला की स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उसका नाम रखा गया - “गुल्लिकाज्जयी बागुल" अर्थात् बेंगनबाई का दरवाजा। ___ उस दिन चामुण्डराय ने प्रथम बार यह अनुभव किया कि प्रचुर-मात्रा में धन-व्यय, अटूट-वैभव एवं सम्प्रभुता के कारण उत्पन्न अहंकार के साथ महामस्तकाभिषेक के लिये प्रयुक्त स्वर्णकलश भी, सहज-स्वाभाविक, निष्काम-भक्तियुक्त एक नरेटी भर नारिकेल-जल के सम्मुख तुच्छ है। यह भी अनुश्रुति है कि वह गुल्लिकाज्जयी महिला, महिला नहीं, बल्कि उस रूप में कुष्माण्डिनी देवी ही चामुण्डराय की परीक्षा लेने और उसे निरहंकारी बनने की सीख देने के लिये ही वहाँ आई थी।