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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 विदुषी रत्न पम्पादेवी - हुम्मच के सन् ११४७ ई.के एक शिलालेख में विदुषी पम्पादेवी का बड़े ही आदर के साथ गणगान किया गया है। उसके अनसार वह गंग-नरेश तैलप ततीय की सुपुत्री तथा विक्रमादित्य शान्तर की बड़ी बहिन थी। उसके द्वारा निर्मापित एवं चित्रित अनेक चैत्यालयों के कारण उसकी यशोगाथा का सर्वत्र गान होता रहता था। उसके द्वारा आयोजित जिन-धर्मोत्सवों के भेरी-नादों से दिग्-दिगन्त गूंजते रहते थे तथा जिनेन्द्र की ध्वजाओं से आकाश आच्छादित रहता था।
कन्नड़ के महाकवियों ने उसके चरित्र-चित्रण के प्रसंग में कहा है किआदिनाथचरित का श्रवण ही पम्पादेवी के कर्णफूल, चतुर्विध-दान ही उसके हस्त-कंकण तथा जिन-स्तवन ही उसका कण्ठहार था।इस पुण्यचरित्रा विदुषी महिला न उब्वितिलक-जिनालय का निर्माण छने हुए प्राशुक-जनसे केवल एक मास के भीतर कराकर उसे बड़ी ही धूमधाम के साथ प्रतिष्ठित कराया था। ___ पम्पादेवी स्वयंपण्डिता थी।उसने अष्टविधार्चन-महाभिषेक एवं चतुर्भक्ति नामक दो ग्रन्थों की रचना भी की थी। पट्टानी शान्तलादेवीश्रवणबेलगोला के एक शिलालेख में होयसल-वंशी नरेश विष्णुवर्द्धन की पट्टानी शान्तलादेवी (१२वीं सदी) का उल्लेख बड़े ही आदर के साथ किया गया है।वह पति-परायणा, धर्म-परायणा और जिनेन्द्र-भक्ति में अग्रणी महिला के रूप में विख्यात थी। संगीत, वाद्य-वादन एवं नृत्यकला में भी वह निष्णात थी। आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव इसके गुरु थे। __ शान्तलादेवी ने श्रवणबेलगोल केचन्द्रगिरि के शिखर पर एक अत्यन्त सुन्दर एवं विशाल जिनालय का निर्माण करवाया था, जिसका नाम “सवति-गन्धवारण-वसति' रखा गया। सवतिगन्धवारण का अर्थ है- सौतों (सवति) के लिये मत्त हाथी। यह शान्तलादेवी का एक उपनाम भी था। इस जिनालय में सन् ११२२ ई. के लगभग भगवान् शान्तिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा स्थापित की गई थी।
- बी-५/४०सी, सैक्टर-३४, धवलगिरि, पोस्ट- नोएडा (उ.प्र.) २०१३०७