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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
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चामुण्डराय जब-जब प्रजाहित अथवा राष्ट्र-सुरक्षा के कार्यों को संपन्न करने हेतु बाहर रहते थे, तब-तब उनके आंतरिक कार्यों की निगरानी की जिम्मेदारी उन्हीं की रहती थी।
कहते हैं कि जिस समय शिल्पी-सम्राट अरिहनेमि, अखण्ड-ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर अहर्निश बाहुबली-गोम्मटेश की मूर्ति के निर्माण में संलग्न था, तब अजितादेवी उसकी तथा उसके परिवार की सुविधाओं का बड़ा ध्यान रखती थी।जब तक उस मूर्ति का निर्माण कार्य पूर्ण संपन्न नहीं हुआ, तब तक वह स्वयं भी उस कार्य की समाप्ति पर्यन्त व्रताचरण, तप एवं स्वाध्याय पूर्वक अपने दिन व्यतीत करती रही और जब मूर्ति-निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ, तो भक्ति-विभोर होकर उसने सर्वप्रथम देवालय-परिसर स्वयं साफ किया, धोया-पोंछा, और देव-दर्शन कर अरिहनेमि तथा उसके परिवार के प्रति आभार व्यक्त किया और अपनी सासु-माता के पास जाकर गद्गद-वाणी में हर्षोत्फुल्ल नेत्रों से उन्हें उसकी सुखद सूचना दी। तीर्थ-भक्ता गुल्लिकाज्जयी - निष्काम-भक्ति में कृत्रिम प्रदर्शन नहीं, बल्कि मन की ऋजुता, कष्टसहिष्णुता एवं स्वात्म-सन्तोष की जीवन-वृत्ति परमावश्यक है। वैभव-प्रदर्शन में तो मान-कषाय की भावना का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में अन्तर्निहित रहना स्वाभाविक है और इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, परमश्रेष्ठ गोम्मटेश की मूर्ति के प्रथम महामस्तकाभिषेक के समय की वह घटना, जब वीरवर चामुण्डराय ने केशन-युक्त शुद्ध दुग्ध के घड़ों के घड़े गोम्मटेश के महामस्तक पर उड़ेल दिये किन्तु वह उनकी कमर से नीचे तक न आ सका। पण्डित, महापण्डित, साधु, मुनि,आचार्य उपस्थित राजागण आदि सभी आश्चर्यचकित,अनेक उपाय किये गये कि महामस्तकाभिषेक सर्वागीण हो, किन्तु सभी के प्रयत्न असफल एवं सभी लोग निराश एवं उदास, अब क्या हो? किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर शुभ-कार्य में वह विघ्न क्यों? यह कष्टदायी उपसर्ग क्यों? ___ सभी की घोर-मंत्रणा हुई। देर तक आकुल-व्याकुल होते हुये सभी ने यह निर्णय किया कि आज उपस्थित सभी भव्यजनों को अभिषेक का अवसर प्रदान किया जाय। जो भी चाहे, मंच पर आकर महामस्तकाभिषेक कर ले।