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________________ IL ור तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में अजीव तत्त्व एवं उसके भेद तथा उसकी अन्य दर्शनों से तुलना डॉ. जयकुमार जैन यह सम्पूर्ण लोक जिनका समूह है, वे तत्त्व जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार के हैं । जैन परम्परा में जीव के पर्यायवाची के रूप में आत्मा, चैतन्य एवं उपयोग शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। जिनमें चेतना का उपयोग (जानने, देखने का सामर्थ्य) नहीं पाया जाता है, उन्हें अजीव कहते हैं। यद्यपि अजीव तत्त्व में जीव तत्त्व के समान गुण, धर्म नहीं पाये जाते हैं, किन्तु उसमें गुण, धर्मों का सर्वथा अभाव नहीं है, अपितु वह स्वजातीय गुण-धर्म सद्भावी है। अजीव का लक्षणः आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में अजीव का कोई लक्षण नहीं किया है। आचार्य पूज्यपाद ने तत्त्वार्थसूत्र पर लिखित सर्वार्थसिद्धि टीका में ‘तद्विपयर्यलक्षणोऽजीवः " कहकर अजीव को जीव से विपरीत लक्षण वाला कहा है। उनका कहना है कि यतः धर्मादिक में जीव का लक्षण नहीं पाया जाता है, अतः उनकी अजीव यह सामान्य संज्ञा की गई है- 'तेषां धर्मादीनामजीव इति सामान्यसंज्ञा जीवलक्षणाभावमुखेन प्रवृत्ता । तत्त्वार्थवार्तिककार आचार्य भट्ट अकलंकदेव कहते हैं कि अजीव को केवल जीवाभाव रूप ही नहीं समझना है, अपितु अनश्व के समान अन्य अचेतन पदार्थों की प्रतीति अजीव से समझना चाहिए। उन्होंने लिखा है- 'अजीव इत्यभावमात्रप्रसंग ः इति चेत्, न भावान्तरप्रतिपत्तेरनश्ववत् । आचार्य विद्यानन्दि स्वामी अजीव का सामान्य लक्षण करते हुए लिखते हैं-'अजीवनादजीवाः स्युरिति सामान्यलक्षणम्।” अर्थात् अजीवन-चेतनास्वरूप जीवन न होने से जीव भिन्न पदार्थ अजीव कहलाते हैं, यह सभी अजीव द्रव्यों में रहने वाला अजीव का सामान्य लक्षण है । वे अपने उक्त वार्तिक का व्याख्यान करते हुए कहते हैं - 'जीवस्योपयोगो लक्षणं जीवनमिति प्रतिपादितं ततोऽन्यदजीवन गतिस्थित्यवगाहहेतुत्वरूपादि IL
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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