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अनेकान्त 66/3, जुलाई - सितम्बर 2013
वर्तमान में भौतिक सुविधा, आवश्यकता की पूर्ति तथा विकास के लिये भूमि का उत्खनन, ऊर्जा के लिये पेट्रोल का, कोयले का, धातुओं का उत्खनन निरन्तर बढ़ता जा रहा है जिससे भूकम्प, सुनामी जैसी विपदाओं का ताण्डव बढ़ता जा रहा है।
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आज स्थान-स्थान पर कल कारखानों का विषाक्त जल नदियों में या भूमि पर व्यर्थ बहा दिया जाता है। जैन दृष्टि से उसमें असंख्य जल के जीवों की हिंसा होती है। पर्यावरण वैज्ञानिक इसे जल प्रदूषण की संज्ञा देते हैं । जैन विधि' से जल की शुद्धि एवं मितव्ययिता से ही जल प्रदूषण से मुक्ति संभव है।
अग्नि उर्जा का प्रतीक है । उर्जा की बचत औ संवर्धन के लिए अग्नि जीव की अनावश्यक हिंसा का निषेध किया है। इस प्रकार अहिंसा के आचरण से मानव प्रकृति का संरक्षण कर विकास की ओर अग्रसर हो सकता है।
धर्म और अर्थ जीवन के महत्वपूर्ण पुरुषार्थ है। जिसमें धर्म प्रथम और अर्थ द्वितीय स्थान पर है। अर्थशास्त्र के केन्द्र में अर्थ है और परिधि में मानव है। इसका मूलाधार इच्छा है। इच्छा वृद्धि-आवश्यकता में वृद्धि - आवश्यकता की पूर्ति के लिये उत्पादन में वृद्धि-अधिक लाभार्जन और समृद्धि यह आर्थिक चक्र है। अधिक लाभ के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और शोषण से हिंसा में वृद्धि और पर्यावरण में असंतुलन निरन्तर देखा जा रहा है।
महावीर स्वामी ने कहा है कि 'इच्छा हु आकाससमा अनंतया” अर्थात् इच्छा आकाश के समान अनन्त है। ‘खणमेतसोक्खा बहुकाल दुक्खा' - इच्छा पूर्ति के लिए प्राप्त भौतिक सुख क्षणिक होते हैं और परिणाम में दुखद होते हैं। एक इच्छा की पूर्ति के बाद दूसरी जन्म लेती है संतुष्टि नहीं होती है । जिस प्रकार अग्नि से अग्नि को शान्त नहीं किया जा सकता है, इच्छा का भी ऐसा ही स्वरूप है।
इसीलिये जैनधर्म की इच्छा को संयमित तथा आवश्यकता को सीमित करने की बात कहता है। आवश्यकता की पूर्ति के लिए जैन आगम जीविकोपार्जन और उत्पादन का निषेध नहीं करता है। जीविकोपार्जन गृहस्थ की आवश्यकता है। जैन धर्म में उत्पादन के लिए साधन की पवित्रता को आवश्यक माना है - इसके लिए जैनागम में तीन निर्देश दिये हैं।
१. अहिंसप्पयाणे
हिंसक शस्त्रों का निर्माण न करना ।
२. असंजुताहिकरणे
शस्त्रों का संयोजन नहीं करना ।
३. अपावकम्मोवदेसे
पाप कर्म का, हिंसा प्रशिक्षण न देना।
हिंसक साधन, परशु कृपाण तलवार आदि शस्त्रों का निर्माण - व्यापार, आदान प्रदान न करने का निर्देश दिया है ।" विश्व शांति के लिए यह निर्देश वरदान है और आज इसकी महती आवश्यकता है।
अर्थोपार्जन के लिए जैनागमों में कर्म की शुद्धता तथा नैतिकता पर बल दिया है।