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अनेकान्त 66/3, जुलाई - सितम्बर 2013
चौर प्रयोग चौरार्थदान विलोप सदृश सम्मिश्राः ।
हीनाधिकं विनिमानं पंचास्तेये व्यतीपातः ॥ १२
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चोरी तस्करी के प्रयोग, चोरी का धन लेना, राज नियमों का उल्लंघन, मिलावट, नाम-तोल में कम ज्यादा करना, काम न करके वेतन लेना सर्वथा अनुचित है।
धन का उपार्जन जीविका के लिये किया जाना चाहिये। धन संग्रह के लिये नहीं । धन के संगह से लोभ तथा स्वार्थ की प्रवृत्ति प्रबल होगी तब गरीबी और असमानता की समस्या बढ़ेगी। इसके लिए अपरिग्रह का पालन करना चाहिए। आवश्यकता से अधिक धन या वस्तुओं का संग्रह न करना अपरिग्रह है। धन का उचित उपयोग तथा दान करना चाहिये। धन के भोग और परिग्रह को सीमित करना चाहिए । अपरिग्रह से गरीबी, असमानता, प्रकृति का दोहन आदि अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है।
अनैतिकता से निरन्तर भ्रष्टाचार, अप्रामाणिकता, बेइमानी आदि आर्थिक अपराध बढ़ रहे हैं। अतः आवश्यक है कि आर्थिक विकास धर्म और नीति से अनुप्रमाणित हो। विकास इस तरह हो कि विश्व शांति को खतरा न हो, अपराध न हो, सभी की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो, अर्थाजन में अप्रमाणिक साधनों का प्रयोग न हो और दूसरों की हानि न हो, यह तभी संभव है जब विकास मानवता तथा नैतिकता प्रधान होगा।
अर्थशास्त्र का उद्देश्य अर्जन करना है। जैनधर्म का उद्देश्य संयोजन और विसर्जन (त्याग) है। अर्थशास्त्र व्यय की बात करता है, जैनधर्म मितव्यय का आग्रह और अपव्यय का निषेध करता है। अर्थशास्त्र में आर्थिक विकास, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, पर्यावरण असंतुलन और समस्याएँ हैं। जैनाचार मं संयम, संतुलन और प्राकृतिक संसाधनों की बचत और समाधान है। आज की परिस्थिति में धर्म और अर्थ विरोधी बन गये हैं । किन्तु पृथक पृथक दोनों सत्य है। अनेकान्त दृष्टि से विचार करें तो दोनों इच्छा, आवश्यकता और संतुष्टि की बात करते हैं। वर्तमान संदर्भ में आर्थिक विकास के और पर्यावरण संरक्षण के लिये मध्यम मार्ग अपनाना होगा। इसके लिये धर्म समन्वित अर्थ नीति को अपनाना होगा। आर्थिक विकास की अवधारणाओं पर पुनर्विचार करना होगा और इसके लिये जैनधर्म के सिद्धान्त ही सार्थक हैं, वरदान हैं।
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