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पर्यावरण आर्थिक विकास औ
पर्यावरण, आर्थिक विकास और जैन धर्म के सिद्धान्त
- डॉ. संगीता मेहता पर्यावरण संरक्षण जैन जीवन शैली का मूलाधार है। समग्र जैन वाङ्मय में पर्यावरण विषयक सूक्ष्म चिन्तन व्याप्त है। मनुष्य के चारों ओर व्याप्त भूमंडल, वायुमंडल, जलमंडल और जीवमंडल ही पर्यावरण है। तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है
संसारिणस्त्रस स्थावराः।
पृथिव्यप्तेजोवायु वनस्पतयः स्थावराः। २/१२.१३ अर्थात् जीव सृष्टि त्रस और स्थावर दो प्रकार की है। पृथ्वी, जल, अग्नि वायु और वनस्पति ये पांच स्थावर जीव हैं। इन सब से मिलकर सृष्टि का निर्माण हुआ। इस तरह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जीव तत्त्व से ओतप्रोत है और संपूर्ण पर्यावरण एक जीवन्त इकाई है और इसमें "परस्परोग्रहो जीवानाम्" कहकर बताया है कि प्रत्येक जीव एक दूसरे पर आश्रित है, सहयोगी है, पूरक है।
प्रत्येक जीव में सहअस्तित्व और एकत्व ही भावना है। आचारांग सूत्र में कहा भी है कि जिसे तू मारने योग्य समझ रहा है वह वास्तव में तू ही है, जिसे आज्ञा योग्य मानता है वास्तव में वह तू ही है, जिसे परिताप देने योग्य समझ रहा है वास्तव में वह तू ही है, जिसे पकड़ने योग्य समझ रहा है वास्तव में वह तू ही है, जिन्हें प्राणहीन करना चाहता है वास्तव में वह तू ही है। इस प्रकार यदि इन जीवों का अस्तित्व है तो ही हमारा अस्तित्व है। अतः हमारे अस्तित्व की रक्षा के लिए पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा प्राणी जगत की सुरक्षा हमारा कर्तव्य है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा है -
क्षिति-सलिल-दहन पवनारम्भं विफलं वनस्पति छेम।
सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते॥२ अर्थात् बिना प्रयोजन भूमि खोदना, जल बहाना, अग्नि जलाना, पंखा चलाना, वृक्षों को उखाड़ना, पत्र, पुष्प, डाल, फलादि को छिन्न-भिन्न करना प्रमादपूर्ण आचरण हे। इसलिये बिना प्रयोजन इन कार्यों को नहीं करना चाहिए। जबकि आज मनुष्य यही प्रमाद कर रहा है। इसीलिए भूमि, जल, वायु, ध्वनि और प्रदूषण विकराल रूप ले रहे हैं। आज इच्छा और भोगवादी दृष्टिकोण ने हिंसा को जन्म दिया है साथ-साथ पर्यावरण संतुलन का विनाश किया। इन परिस्थितियों में अहिंसा आत्मशुद्धि के साथ पर्यावरण संतुलन का श्रेष्ठ मार्ग है।