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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 है और जो सरलता से अपने दोषों को कह देता है वह निशल्य बन प्रायश्चित द्वारा आत्मा को निर्मल करते हैं। उनकी ही समाधि सिद्ध होती है। अतः हे क्षपक ! माया शल्य से रहित होकर गुरु द्वारा दिये प्रायश्चित को करके पूर्ण भावशुद्धि के साथ सल्लेखना धारण करो। आचार्य के इस प्रकार के उपदेश से क्षपक अत्यन्त रोमांचित होकर समस्त दोषों का स्मरण करता है और आचार्यश्री के पादमूल में प्रायश्चित लेने को उद्यत होता है। योग वसति में संथरा - ___समाधि हेतु उद्यत क्षपक के लिए आचार्य उसके योग्य वसति में संथरा स्थापित करते हैं। संथरा पर्याप्त प्रकाश युक्त, स्थूल-सूक्ष्म जीवों से रहित, मजबूत दीवारें व कपाट सहित गांव के बाहर या किसी उद्यान अदि में हो जहाँ चतुर्विध संघ जा सके।
क्षपक का संस्तर - पृथ्वीमय, लकड़ी का फल या तृणों का बनाया जा सकता है। जिस पर पूर्व या उत्तर की ओर सिर रखकर क्षपक को आरोहण कराया जाता है। संस्तरारूढ़ क्षपक की परिचर्या का संपूर्ण दायित्व आचार्य श्री संघ के यतियों को सौंपते हैं। जो क्षपक के शरीर को दबाने, सहलाने, करवट दिलाने, उठने-बैठने-चलने में सहायता करते हैं। धर्मकथा सुनाकर क्षपक के चित्त को स्थिर करते हैं। भोजन-पान शोध कर क्षपक को आहार कराते हैं। वे मल-मूत्र को उठाने और वसति, संस्तर व उपकरणों को शोधन कार्य भी करते है।।
निर्यापकाचार्य - पहले यह देखते हैं कि क्षपक के मन में किसी आहार विशेष की उत्सुकता तो नहीं है। अतः वह उत्तम भोजन पात्रों में अलग अलग भोज्य सामग्री दिखाकर मनोज्ञ आहार लेने के लिए पूछता है। क्षपक विरक्त होकर ये विषयानुराग बढ़ाने वाले हैं ऐसा सोचकर उनका त्याग करता है। परन्तु यदि क्षपक दिखाए हुए आहार के स्वादिष्ट रस में लुब्ध होकर किसी वस्तु को बार बार खाने की इच्छा करता है तो आचार्य क्षपक के मन से सूक्ष्म शल्य निकालने के लिए विशेष उपदेश देकर आहार से विरक्ति करवाते हैं। वे एक एक आहार का दोष बताकर त्याग करवाते हैं। इसके बाद क्रमशः अशन, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का त्याग कराकर पानक आहार देते हैं। फिर क्षपक को आचाम्ल का सेवन कराया जाता है जो कफ क्षयकारक, पित्त शान्तकारक और वात से रक्षा करता है। पेट के मल की शुद्धि के लिए विरेचन और अनुवासन कराते हैं।
फिर निर्यापकाचार्य क्षपक को संघ के मध्य चारों प्रकार के आहार का त्याग कराते हैं। आहार प्रत्याख्यान के बाद क्षपक आचार्य, शिष्य, साधर्मी और गण के सम्बन्ध में जो कषायें होती हैं, उन्हें निकाल देता है। धर्मानुराग प्रकट करते हुए हाथ जोड़ प्रमाण पूर्वक समस्त मुनिसंघ से मन वचन काय कृत-कारित-अनुमोदना से पूर्व में किये सब अपराधों की निःशल्य होकर क्षमा माँगता है और स्वयं संघ को क्षमा कर उत्कृष्ट वैराग्य के साथ तप और समाधि में लीन होकर कर्मों की निर्जरा करता है।