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________________ 88 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 न करने को, ईर्या भाषादि पंच समितियों के पालन में तथा तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर रहने को कहते हैं। वे कहते हैं कि दुष्ट इन्द्रियों को जीतना तथा स्पर्शादि विषय में आसक्त न होते हुए निराकुल होकर ज्ञान व चारित्र की आराधना करना। ___ शिक्षा देने के उपरान्त, आचार्य क्षपक से भी गण के समस्त साधुजन पंचांग नमस्कार पूर्वक मन वचन काय से क्षमा माँगते हैं। समाधिमरण करने वाला क्षपक अपना गण त्यागकर परगण में समाधि हेतु गमन करता है। जिन आचार्य के सान्निध्य में क्षपक सल्लेखना लेता है, उन्हें निर्यापकाचार्य, तथा जो मुनि क्षपक की सेवा-सुश्रुषा देखभाल करते हैं, वे परिचारक कहलाते हैं। सल्लेखनार्थी को आता देखकर बड़े वात्सल्यभाव से परगण के साधुओं को आदरपूर्वक खड़े होकर उसे ग्रहण करना चाहिए। क्षपक और परगणस्थ मुनि की परस्पर परीक्षा - आगन्तुक क्षपक और परगणस्थ मुनि प्रतिलेखना द्वारा एक दूसरे के चरण यानी समिति और गुप्ति और करण यानी षडावश्यक को जानने के लिए परीक्षा करते हैं। यह ७ बातों के लिए की जाती है - प्रतिलेखन, वचन, ग्रहण, निक्षेप, स्वाध्याय, विहार और भिक्षा ग्रहण। फिर क्षपक द्वारा सहायता हेतु निवेदन करने पर परगण का आचार्य उसकी वसति-संस्तर देकर तीन रात सहायता करे और भली प्रकार परीक्षा करके संघ में स्वीकार करते हैं। क्षपक का आत्म समर्पण-क्षपक आचार्यवर से प्रार्थना करता है कि आप श्रमण संघ के निर्यापक हैं, मैं आपके सान्निध्य में रहकर श्रामण्य को उद्द्योतित करना चाहता हूँ। परगण के आचार्य को आश्वासन - हे मुनिवर क्षपक ! बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्यागकर तुम बिना किसी बाधा के रत्नत्रय रूप उत्तमार्थ की साधना करो और निराकुल होकर हमारे संघ में ठहरो। चित्त व्याकुल नहीं करना। हम सभी वैयावृत्यकारक अपने सहयोगियों से इस विषय में विचार करते हैं। आचार्य यह देखते हैं कि क्षपक की मिष्टाहारों में लोलुपता है या ग्लानि है? आचार्य अपने संघ के बीच क्षपक को उपदेश देते हैं - हे क्षपक ! तुम सुखशीलता को त्यागकर परिषहों को सहन करते हुए चारित्र को धारण करो। अपनी इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकना। उत्तम क्षमादि धर्मों के द्वारा कषायों पर विजय पाओ, इससे आप जितेन्द्रिय बनोगे। यद्यपि आप पूर्व अपने गण में छत्तीस मूलगुणधारी, प्राचित शास्त्र के ज्ञाता विद्वान आचार्य रहे हो, फिर भी अपने दोषों की आलोचना अवश्य करनी चाहिए, अन्यथा व्रतों की शुद्धि नहीं होती। आलोचना हेतु प्रेरणा - ___ हे क्षपक ! दीक्षाग्रहण से लेकर आज तक रत्नत्रय में लगे दोषों या अतिचारों को निःसंकोच होकर एकाग्रता से कहो और उनकी आलोचना करो। यदि कोई काँटे कीतरह अपने दोष नहीं निकालता, वह माया-शल्य से विद्ध होकर अशान्त, दुःखी और भयभीत रहता
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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