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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 हैं वे अमूल्य निधि हैं, दुर्लभता से प्राप्त हुए हैं, इनकी सुरक्षा के लिए ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए कि यह बारबार धारण न करना पड़े। ऐसी भावना से देहोत्सर्ग करना - सल्लेखना है। __ वस्तुतः सल्लेखना को साधना का अंतिम चरण माना गया है। यह जीवन भर के तप का फल है। जैसे विद्यार्थी परीक्षा में न बैठे तो वर्ष भर की पढ़ाई व्यर्थ चली जाती है, उसी प्रकार सल्लेखना पूर्वक मरण न होने पर जीवन भर की साधना का वास्तविक फल नहीं मिल पाता है। जैसे मंदिर के शिखर की शोभा उसके कलशारोहण से है, वैसे ही सल्लेखना- तप-साधना के शिखर का कलशारोहण है। क्षपक का स्वरूप -
सल्लेखनागत आचार्य या साधु क्षपक कहलाता है। आ. पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में क्षपक का स्वरूप कहा – “कों के उपशमन में तत्पर, तप साधना में संलग्न चारित्रमोह को क्षपणा के लिए सन्मुख शील धारी जो साधक सन्त हैं और जो परिणामों की विशुद्धि में अग्रसर हैं, वह क्षपक कहलाता है।" क्षपक मुख्यतः दो कारणों से प्रेरित होकर सल्लेखना हेतु दृढ़ विचार करता है -
(१) भले ही दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं है। लेकिन वह विचारता है कि यदि मैं इस समय भक्त प्रत्याख्यान न करूँ और आगे निर्यापकाचार्य भी कदाचित न मिले, तब मैं ‘पण्डित मरण' की साधना से वंचित रह जाऊँगा।
(२) वह विचारता है कि जिस सम्यक्त्वाराधना रूप धर्म को बहुत समय से धारण किया है, यदि मरण समय में छोड़ दिया जावे, या कारणवश उसकी विराधना हो जाए तो वह धर्म निष्फल हो जायेगा, अस्तु कर्मों की निर्जरा के लिए सल्लेखना धारण करना योग्य है। क्षपक द्वारा ‘परगण' ग्रहण -
सल्लेखना इच्छुक यदि आचार्य क्षपक हैं, तो वह अपने गण से पूछकर उत्कृष्ट रूप से प्रवृत्ति करने के लिए दूसरे गण में जाने का विचार करता है। क्योंकि अपने गण में रहने से - आज्ञाकोप, कठोर वचन, कलह, दुःख, स्नेह, करुणा, ध्यान विघ्न और असमाधि - ये नौ दोष होने की संभावना हो सकती है, किन्तु परगणवासी आचार्य में उक्त दोष नहीं होते। सल्लेखनाधारी आचार्य क्षपक अपनी आयु स्थिति का विचार कर शुभ दिन शुभकरण या शुभ नक्षत्र में अपने संघ को किसी गुणसंपन्न युवाचार्य के हाथों में सौंपकर, गण त्याग करने के लिए तैयार हो जाते हैं। वह संघ को त्याग करते समय जिन बाल वृद्ध मुनिजनों के साथ लम्बे समय तक रहने से उत्पन्न हुए ममत्व, स्नेह, राग अथवा द्वेष वश जो कठोर वचन कहें हों, उनके लिए क्षमा माँगता है। उस समय आचार्य क्षपक - गणी एवं गण को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि जैसे उद्गम स्थल से छोटी नदी आगे आगे बढ़ती हुई विस्तार को प्राप्त हो, समुद्र तक पहुँच जाती है, वैसे ही आप सभी शील व गुणों में वृद्धिगंत हों। शिक्षा देते हुए आचार्य क्षपक छह आवश्यकों के परिपालन में प्रमाद