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________________ क्षपक की मनोवैज्ञानिकता : सल्लेखना के सन्दर्भ में प्राचार्य पं. निहालचंद जैन जीवन और मृत्यु का अनादि प्रवाह तब तक है, जब तक जीव की मुक्ति नहीं हो जाती। जो जीवन के सौन्दर्य व शिवत्व को पहचान लेते हैं, उनके लिए मृत्यु, मंगल महोत्सव बन जाती है। जैसे रात्रि में से अरुणोदय होता है और अरुणोदय में ही रात्रि का निर्माण होता है, ऐसे ही जीवन में मृत्यु का फल लगता है और मृत्यु में जीवन का। जिनका जीवन संयम और तप आराधना में व्यतीत होता है, उन्हें मृत्यु भयकारक नहीं लगती। जिन्होंने जीवन आनन्द, अनुग्रह और अनासक्ति में जिया है, वे मुस्कराते हुए मरते हैं। कबीर इसे कहते हैं - “ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया " । मुनि क्षमासागर जी ने एक कविता में कहा मौत ने आकर। उससे पूछा - - मेरे आने के पहिले वह क्या करता रहा? उसने कहा - आपके स्वागत में पूरे होश और जोश से जीता रहा। मौत ने उसे प्रणाम किया और कहा- अच्छा जियो/ अलविदा ! T एक अनासक्त साधक के लिए - मौत जीवन की परीक्षा है । जीवन का मूल्यांकन करने वाली कसौटी। तभी तो मुनि क्षमासागर जी कहते हैं - जीवन भर / मौत हमारा इम्तिहान लेती है, एक एक सांस / गिन गिन कर लेती और देती है। हमने, जीवन भर क्या खोया? क्या पाया? इसका लेखा-जोखा - अंत में यही आकर तो लेती है। जैन साधक चाहे वह व्रती श्रावक हो या साधु हो, मृत्यु को निकट जानकर सभी प्रकार के विषाद को छोड़कर समता पूर्वक देह त्याग करना समाधिमरण या सल्लेखना है । सल्लेखना हैकाय व कषायों को भली तरह से कृश करने का। जब शरीर ही उसकी संयम साधना में बाधक बनने लगे तो यह सोचकर कि शरीर तो पुनः मिल सकता है लेकिन जो व्रत, संयम, धर्म मैंने धारण किये
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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