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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
युक्त प्रतिमायें कम हैं। किन्तु गुप्तोत्तरकाल में प्रत्येक तीर्थकरों के पादपीठ पर लाछंन मिलने लगता है। इन सभी मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स चिन्ह है।
प्रारम्भ में पादपीठ पर केवल धर्मचक्र, सिंहयुग्म और पूजकों को मूर्तियों के साथ बनाया गया है किन्तु बाद के समय में तीन छत्र, दुन्दुभिवादकों यक्ष-यक्षणियों, गजयुग्म, वृषयुग्म, मृगयुग्म आदि का अंकन भी है। २४ तीर्थकरों में से ज्यादातर प्रतिमाएँ पार्श्वनाथ. शान्तिनाथ. नेमिनाथ तथा महावीर की मिलती है।
यह माना जा सकता है कि २४ तीर्थङ्करों की मूर्तभावना ईस्वी पूर्व के प्रारम्भ के कुछ पूर्व ही सूची निर्धारित हुई थी। ये सूचियाँ ४७३ ई. से मिलती है।११ जैनमूर्ति का उत्कीर्णन प्रथमतया लगभग दूसरी सदी ई.पू. में प्रारम्भ हुआ था जिसका प्राचीनतम उदाहरण पटना के समीप लोहानीपुर से प्राप्त मौर्यकालीन जैन मूर्ति है।१२
इसके बाद की मुर्ति ऋषभनाथ की शाहाबाद के चौसा नामक स्थान से प्राप्त हई जो अब पटना संग्रहालय में है। इसमें तीर्थङ्कर एक ऊँची चौकी पर पद्मासन में विराजमान है। उनके सिर के पीछे पद्माकृत प्रभामण्डल हैतथा कन्धों पर लगती जटाएँ है, यह कॉस्य प्रतिमा एक मूर्ति ऋषभनाथ की गया जिले से मिली है जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है। अण्डाकार प्रभामण्डल, कन्धों तक जटायें है। पादपीठ पर वृक्ष लांछन, सिंह युग्म व कई पूजक आकृतियाँ है। यह पत्थर की मूर्ति है। दोनों ओर छोटी स्थानक मूर्तियाँ भी बनी है। एक अन्य मूर्ति कांस्य की कायोत्सर्ग मुद्रा में है। ऐसी कई मूर्तियाँ तीर्थङ्करों की प्राप्त होती है जो लाँछन युक्त व पादपीठ युक्त हैं।
राजस्थान और गुजरात में जैन धर्म का व्यापक प्रभाव था तथा जैनमन्दिरों तथा मूर्तियों के निर्माण भी अधिक हुए। एक मूर्ति महावीर की है जो कांस्य प्रतिमा है व महाराष्ट्र में प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम बम्बई में है। इसमें श्वेताम्बर महावीर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े है। वे अधोवस्त्र धारण किये है। सिर के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल है। मूर्ति के शीर्ष पर तीन छत्र है तथा परिकर में पद्मासन मुद्रा में २३ तीर्थकरों, वादकों, विद्याधरों एवं चावरधारियों को उत्कीर्ण किया है। इनके वामपार्श्व में यक्षणि सिद्धायिका, दक्षिण पार्श्व में यक्ष मातंग तथा पादपीठ के नीचे सिंह लाछंन भी बनाया गया है। शास्त्रों में केवल २४ तीर्थकरों के ही नहीं वरन् उनकेसाथ यक्ष व यक्षिणीयों की प्रतिमाओं के भी निश्चित लक्षण है। इनमें कुछ यक्ष व यक्षिणीयों का विवेचन निम्नासुार है
यक्ष :
(१) गोमुख - अलग-अलग जैन ग्रन्थों में इसका विवरण भिन्न है किन्तु फिर भी रूपमण्डन
के अनुसार गोमुख की गजमुख व हेमवर्ण कहा गया है। इनके हाथ क्रमशः वरद मुद्रा,
अक्षसूत्र,पाश एवं बीजपूरक युक्त बनाये गये है। (२) मतायक्ष - इसका वर्ण श्याम, गज पर आसीन, अष्टभुज, हाथ क्रमशः वरमुद्रा,
अभयमुदा मुद्गर, अक्ष, धाश, अंकुश, शक्ति एवं मातुलिंग से युक्त हो। इसको प्रायः
अजितनाथ के पार्श्व में ही बनाया गया है। (३) त्रिमुख - यह मयूरस्थ, त्रिनेत्र, त्रिवक्त्र, श्याम वर्ण एवं षड्भुज हो और उनके हाथ
क्रमशः पशु, अक्ष, गदा, चक्र, शंख एवं वरद मुद्रा युक्त हो। ऐसे ही चतुरानानद, तुम्बरू, कुसुम, मातंग, विजय, जय, ब्रह्म, यक्षेत्, कुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नटेश,