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________________ 22 (१४) अनन्तनाथ (१५) धर्मनाथ (२३) पार्श्वनाथ (२४) महावीर (१) ऋषभनाथ (२) अजितनाथ (३) सम्भवनाथ (७) सुपार्श्वनाथ (२१) नमिनाथ (२२) नेमिनाथ पाताल किन्नर पार्श्व मातंग सभी प्राचीन शास्त्रों में जैन तीर्थङ्करों को सामान्यतया अजानुलम्बबाहु, श्रीवत्स से युक्त, प्रशान्त, दिगम्बर, तरूण, रूपवान तथा कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन मुद्रा में स्थित निर्मित करने का निर्देश दिया गया है। जैन तीर्थकर प्रतिमा चामर, तीन छत्र, अशोक वृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि, यक्ष-यक्षिणीयों तथा अपने लाँछनों (चिन्हों) से युक्त होना चाहिए। जिन मूर्ति तीन छत्रों से युक्त एवं त्रिरथ प्रकार की होनी चाहिए। अशोक वृक्ष के पत्ते, देव दुन्दुभिवादक, सिंहासन, असुर, गज व सिंहों से विभूषित हो । प्रतिमाओं के मध्य में धर्मचक्र एवं आस-पास यक्षिणियाँ निर्मित हो । ऊपर तोरण हो और प्रतिमा के बाह्य पक्ष में गोसिंहादि से अंलकृत वाहिकायें, विभिन्न देवताओं से युक्त द्वारशाखायें तथा ब्राह्य, विठ्ठणु, ३ चन्द्रिका, जिन, गौरी एवं गणेश से युक्त रथिकायें हो । रूपमण्डन में आदिनाथ के कैलाश, नेमि के सोमशरण, पार्श्व का सिद्धिवर्ति एवं महावीर के सदाशिव सिहासनों का उल्लेख है। इन तीर्थङ्करों के साथ धर्मचक्र एवं छत्र निर्मित करने का निर्देश दिया गया है। तीर्थकरों के रंग व उनके ध्वजचिन्ह (लाञ्छन) का भी निर्देश है। इनकी सूची लगभग ८ वीं ९ वीं ई. में बनी जैसे तीर्थकर (२३) पार्श्वनाथ (२४) महावीर अनेकान्त 66/1 जनवरी-मार्च 2013 वर्ण सुवर्णवत सुवर्णवत् सुवर्णवत हरित सुर्वणवत श्याम हरित सुर्वणवत् अंकुशी, अनन्तमति पद्मावती पद्मावती सिद्धायिका लाञछन वृषभ गज अश्व स्वास्तिक नीलोत्पल शंख सर्प, फणी सिंह भारतीय शिल्प में तीर्थङ्कर प्रतिमायें कुषाण काल से सर्वप्रथम प्राप्त होकर मध्ययुग तक मिलती है। जैन शिल्प मथुरा, लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, भरतपुर, कोटा, जयपुर, दिल्ली, वाराणसी, खजुराहो, बम्बई, नागपुर, श्रीनगर, लंदन आदि संग्रहालयों में सुरक्षित है। ये तीन प्रकार की प्रतिमायें है कायोत्सर्ग प्रतिमायें, आसन प्रतिमायें तथा सर्वतोभद्रिका प्रतिमायें। इनमें कायोत्सर्ग या खड़ी मुद्रा की प्रतिमाओं में तीर्थङ्कर के हाथों को नीचे सीधे लटकाकर बनाया गया है। आसन प्रतिमाओं में तीर्थङ्कर पद्मासन मुद्रा में बैठे है। तथा सर्वतोभद्रिका प्रतिमाओं में चार तीर्थकरों को चार दिशाओं की ओर मुख करके स्थानक अथवा आसन मुद्रा में निर्मित किया गया है। कुषाणकालीन जैन तीर्थङ्करों की प्रतिमाओं को लाछंन रहित बनाया है। इनमें ऋषभनाथ को जटाधारी, सुपार्श्वनाथ को एक, पाँच व नौ सर्पफणों तथा पार्श्वनाथ को तीन, सात अथवा ग्यारह फणों व नेमिनाथ को कृष्ण व बलराम से घिरा हुआ बनाया गया है। गुप्तकाल में भी लाच्छन
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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