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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 जैन धर्म की आत्मा उसकी मूर्तिकला में स्पष्ट झलकती है। जैन धर्म में जैन स्थल, मन्दिर, मूर्तियाँ, उपासनास्थल या तो पर्वतों की चोटियों पर होते है अथवा शान्त, सुरम्य, हरे-भरे स्थलों में स्थित होते है। मूलतः यह भाव एकाग्र, ध्यान और आध्यात्मिक चिन्तन में सहायक होता है। इन्हीं स्थानों पर मन्दिरों की स्थापत्य कला और सबसे अधिक मूर्तिमान तीर्थङ्कर मूर्तियाँ व अन्य जैन धर्म की मूर्तियाँ अपनी शांति, एकाग्रता, तप व वीतराग के भाव का परम आनन्द प्रदान करती है। जैनधर्म की मर्तियाँ जैन दर्शन के साथ-साथ उनके निर्माणकर्ताओं की कलासाधना को भी दर्शाती है। विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त कलात्मक मूर्तियों में जैनकला कावैशिष्ट्य देखने में आता है। तीर्थङ्कर भगवतों के दोनों पार्श्व में यक्ष-यक्षणियों की युगल मूर्तियाँ मुख्यतः जैन तीर्थङ्करों तथा कला शिल्पियों के लोकजीवन के प्रति अनुराग की प्रतीक है।' जैन धर्म से सम्बन्धित कई ग्रन्थ हैं जिनमें इन मूर्ति के शास्त्रीय नियमों का ज्ञान प्राप्त होता है। निर्वाण कलिका, प्रतिष्ठा सारोद्धार, अभिज्ञान चिन्तामणि, वास्तुसार प्रकरण, मानसार, अपराजितपृच्छा, रूपमण्डन, देवतामूर्तिप्रकरण आदि। इन ग्रन्थों में मूर्ति, वास्तु व स्थापत्य का विवरण दिया गया है। जैन धर्म के आद्य प्रर्वतक भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में प्रमाणित विवरणसर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है। यहाँ उनका उल्लेख अपने अधीनस्थों को समद्धि प्रदान करने वाले राजा के रूप में किया गया है। उस समय अधिकांश जैन तीर्थकर क्षत्रिय थे और राजवंशों से सम्बन्धित थे।' वैदिक साहित्य में जैनधर्म को स्वंतत्र अस्तित्व के रूप में निश्चित संकेत नहीं है। वैदिक काल के उपरान्त पौराणिक काल में आकर भी जैन तीर्थङ्कर स्वयं को ब्राह्मण देवताओं से पूर्णतया पृथक नहीं कर पाये थे। शिव पुराण में ऋषभदेव को शिव के योगावतारों में एक कहा गया है।' तथा इसी पुराण में एक अन्य स्थान पर पुनः शिव के ऋषभावतार का उल्लेख है।६ भागवत और गरुड़ पुराण में भी ऋषभदेव की गणना वैष्णव अवतारों के अर्न्तगत् की गई है तथा ऋषभदेव की उत्पत्ति से संबंधित कथाएँ भागवत् पुराण, महापुराण और आदि पुराण में उपलब्ध हैं।' जैन तीर्थङ्करों को विष्णु का अवतार बताने की परम्परा मध्यकाल तक चलती रही है - अपराजितपृच्छा में एक स्थान पर स्पष्ट कहा गया है कि - कलियुग आने पर विष्णु समुद्र और विजया के पुत्र नेमिनाथ नामक बाइसवें तीर्थकर के रूप में गिरिमस्तक पर जन्म लेगें। अतः यह भी कहा गया है कि - इस बुद्धयुक्त कलियुग में दिगंबर, श्वेताम्बर और केवलिन् भी होंगे। इन ऋषभादि तीङ्ककरों की संख्या २४ होगी, इतनी ही संख्या में उनके शासन देवता और यक्ष तथा प्रत्येक के अलग-अलग आठ प्रातिहार भी होंगे।८ अपराजितपृच्छा ग्रन्थ में जिनेन्द्र मूर्तिलक्षण-सम्बन्धी विवरण भी वैष्णव धर्म के एक अंग रूप में ही है। रूपमण्डन, अपराजित पृच्छा ग्रन्थों में जैन तीर्थङ्करों एवं उनकी यक्ष-यक्षिणियों (शासक देवता) को सुनियोजित विवरण प्रस्तुत है। जैन तीर्थङ्करों के यक्ष व यक्षिणी (शासन देवताओं) के निम्न नामों से जाना जाता है। जैसे - तीर्थकर यक्ष यक्षिणी (१) ऋषभदेव गोमुख चक्रेश्वरी अजितनाथ महायक्ष अजितबला, रोहिणी (६) पद्यनाभ मनोवेगा, श्यामा कुसुम
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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