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________________ जैन शिल्प विधान का स्वरूप -डॉ.मुक्तिपाराशर प्राचीन कलाओं में भारत में मूर्तिकला सर्वाधिक लोकप्रिय थी। यह मानव जीवन के अभिन्न अंग के रूप में लौकिक परम्पराओं में व्याप्त थी। भारतीय जीवन के विभिन्न आदर्शो की प्रगति ही मूर्तिकला का उद्देश्य रहा है। मूर्तिकला में हमारी धार्मिक, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक परम्पराएँ समाहित हैं। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का समन्वय ही भारतीय मूर्तिकला का आदर्श है। भारतीय कला विशेषकर धर्म से ज्यादा प्रभावित रही है और वैष्णव, बौद्ध, शाक्त्य जैनधर्म आदि धर्मों ने इसे विषय प्रदान किये और इसने भी इनके प्रचार-प्रसार में अपना सहयोग दिया। भारतीय मूर्तिकला विशेषतः काम साध्य है। मूर्तिकला अपनी विविध रूपों से मानव को आह्लादित कर उसमें स्वस्थ मानसिकता का विकास करती है। कला में इच्छा का अपना महत्व है। मूर्तिकला हो या चित्रकला - मनु ने कहा था कि कामाभाव में कोई कर्मसंभव नहीं है। व्यक्ति जो भी कर्म करता है वह इच्छा से ही प्रेरित होता है। अकामस्य क्रिया काचिदृष्यते नेह कद्धिचित्। यद्धपि कुरूते किञ्चित्तता चेष्टितम्॥ काम से ही बौद्धिक प्रगति होती है और कल्पनाएँ साकार रूप लेती है। सर्वप्रथम इस बात पर ध्यान दें कि मूर्ति निर्माण के दो उद्देश्य रहे हैं - (१) अतीत का संरक्षण अर्थात् स्मृति को जीवित रखने की (२) अव्यक्त की मूर्त अभिव्यक्ति के लिए। कला सामान्यतः व्यंग्यात्मक होती है। कृत्रिमरूप की रचना करना मानवोचित स्वभाव सा है। वृक्ष की एक टहनी को वृक्ष मान लेना, पत्ते का बैल बनाकर आनन्द मनाना, पत्र की नाव बनाकर, उसे पानी में बहाकर तालीपीटना आदि। यही व्यंग्य आध्यात्मिक और धार्मिक भावनाओं के उच्च स्तर का आश्रय लेकर मन्दिर और मूर्ति को पूज्यता प्रदान करने तथा उसमें देवताओं की प्रतिष्ठा करने का प्रधान कारण होती है। अ भारतीय मूर्ति में व्यंजना की अद्भुत क्षमता है। यहाँ के कलाकारों ने मर्ति को अत्याधिक शालीन रूप में प्रस्तुत किया है। सैन्धव काल से वर्तमान काल तक की अवधि में देशकाल परिस्थिति के अनुसार मर्तिकला ने अनेक शैलियों में जन्म लिया है। मूर्ति की शैली में जब-जब परिवर्तन हुआ वह एक युग विशेष की पहचान हो गई। यहाँ, पत्थर का तक्षण करके, धातु को ठालकर, ठप्पा लगाकार, हाथ से बनी मिट्टी की मूर्तियाँ मिलती है। भारतीय कला में जैन धर्म का विशेष प्रभाव रहा है चाहे चित्रकला हो, चाहे मूर्तिकला जैन दर्शन ने कलाकार की अभिव्यक्ति के लिए उसे अनुभूति के दर्शन का विषय दिया है। मानसिक, इन्द्र, कल्पनाओं एवं अनुभूतियों को जब वह साकार करता है तो निश्चय ही वह दर्शक को कुछ उत्कृष्टता सिद्धि प्रदान करना चाहता है। जैन मूर्तिकला में वास्तव में आध्यात्मिक भावना मर्ति के अन्तः से झाँकती रहती है, इसलिए यह मूर्तिकला विचार या भाव प्रदान मानी गई है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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