SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 प्रतीत होने पर सामान्य दर्शक को जो रसास्वादन होना चाहिये, वह न हो सकेगा। इन सबके अतिरिक्त जो पात्र जिस भाषा का ज्ञाता होता है, उसी भाषा का समावेश संस्कत नाटककारों को उनके संवादों में करना चाहिये। जिससे दृश्यकाव्यों में स्वाभाविकता बनी रहे। जब कोई भी संस्कृत नाटककार संस्कृत नाटकों की रचना करेगा तो वह एक ही स्थान पर बैठकर करेगा, न कि नाटक में प्रयुक्त तत् तत् स्थानों पर जाकर करेगा। अतः आचार्य भरतमुनि ने उन उन पात्रों द्वारा प्रयुक्त भाषा का निर्माण कैसे किया जाये, उसका उल्लेख अपने नाट्यशास्त्र में किया है। यतः संस्कृत नाटक देश-कालातीत हैं, अतः उनकी प्राकृत भाषा भी एकसूत्र में बंधी रहे, इसके लिये भरतमुनि ने प्राकृत भाषा के व्याकरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख किया है। इससे अर्थों में एकरुपता बनाये रखने में सुविधा रहेगी। संदर्भ :1. नाटयशास्त्रम (द्वितीयो भागः) श्री बाबूलाल शुक्ल शास्त्री, प्रका. चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, प्रथम संस्करण, वि.सं. 2035, अध्याय 18/26 2. नाट्यशास्त्रम् 18/473. नाट्यशास्त्रम् 18/2 4. वही, 18/3 5. वही, 18/4 6. वही, 18/6 7. वही, 18/7 8. वही, 18/8 9. वही, 18/9 10. वही, 18/10 11. वही, 18/11 12. वही, 18/12 13. वही, 18/13 14. वही, 18/14 15. वही, 18/15 16. वही, 18/16 17. वही, 18/18 18. वही, 18/19 19. वही, 18/20 20. वही, 18/21 21. वही, 18/22 22. वही, 18/23 23. वही, 18/28 24. वही, 18/29 25. वही, 18/31/35 26. वही, 18/43 27. वही, 18/45 28. वही, 18/49 29. वही, 18/50 30. वही, 18/51 31. वही, 18/52 32. वही, 18/52 की टिप्पणी 33. वही, 18/52 34. वही, 18/53/54 35. वही, 18/56/60 36. वही, 18/61 - रवीन्द्रपुरी, वाराणसी (उ.प्र.)
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy