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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 उदाहरण के लिये आप देखें कि नाटयशास्त्र के नियमों को आधार बनाकर मृच्छकटिक में शूद्रक ने शकार के मुख से शाकारी भाषा का ही प्रयोग कराया है। पुल्कस-डोम और उसके समान अन्य नीच जातियों के लोगों की भाषा चाण्डाली रखनी चाहिये। कोयले के व्यवसायी, बहेलिया (व्याध), लकड़ी और पत्तों को जंगल में ढोकर अपनी आजीविका चलाने वाले श्रमिकों तथा जंगल के निवासी लोगों की भाषा शकार भाषा होनी चाहिये। जहाँ सभी, घोड़े, बकरे, भेड़, ऊँट, बैल अथवा गायों को बाँधा जाये अथवा रखा जाये, उन स्थानों के निवासियों की भाषा आभीरी अथवा शाबरी भाषा रखी जाये। द्रविड़ आदि देशों के व्यक्तियों या वनवासियों की भाषा द्राविड़ी भाषा रखी जाये। सुरंग आदि खोदने वाले मजदूर, जेलों के पहरेदार, घोड़ों के सईस (या ऊँटों के रेवारी) या आपत्ति में पड़ा नायक, या उसके सदृश जो भी अन्य पात्र हैं, वे अपने स्वरूप के दक्षणार्थ अथवा अपने स्वरूप को छिपाने के लिये उनके मुख से मागधी प्राकृत में संवाद प्रस्तुत किये जायें। भारत की गंगा नदी और सागर के मध्यवर्ती प्रदेशों की भाषा एकार बहुला, विन्ध्याचल और सागर के मध्यवर्ती पात्रों की भाषा नकार बहुला, वेत्रवती नदी के उत्तरवर्ती प्रदेशों तथा सौराष्ट्र एवं अवन्ती देशों की भाषा चकार बहुला, हिमाचल पर्वत, सिन्धु तथा सौवीर देश के समीपवर्ती रहने वाले पात्रों की भाषा उकार बहुला, चम्बल नदी के उस पार अरावली पर्वत अर्थात् मेवाड़ और मारवाड आदि प्रदेशों से संबन्धित पात्रों की भाषा ओकार (या तकार) बहुला भाषा रखने का विधान है। ये सभी भाषा रूप विविध प्राकृत भाषाओं के ही रूप हैं। उपर्युक्त के अतिरिक्त भरतमुनि का मत है कि- भाषागत जो बातें उक्त नियमों में संकलित न हो पाई हों, उन्हें पात्रानुसार लोकाचार अथवा सामान्य व्यवहार से संग्रहीत कर लेना चाहिये। यहां भी सामान्य लोगों की भाषा अर्थात् प्राकृत भाषा के संवाद रखने का विधान है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य भरतमुनि ने संस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्रयुक्त होनी वाली विविध प्राकृत भाषाओं का विधान किया है और अन्त में यह भी लिख दिया है कि जिन भाषागत नियमों का उपर्युक्त नियमों में समावेश न हुआ हो उन्हें लोकाचार अथवा सामान्य रूप से व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली भाषा को आधार बनाकर तत् तत् पात्रों के संवादों का संयोजन करना चाहिये। आचार्य भरतमुनि के अनुसार संस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्रयुक्त होने वाली उपर्युक्त प्राकृत भाषाओं के संदर्भ में विचार करने पर दो बातें बहुत स्पष्ट होती हैं। प्रथम यह कि संस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्राकृत भाषा का समावेश अवश्यम्भावी है। क्योंकि प्रायः सामान्यजन एवं स्त्री पात्र सुसंस्कृत न होने से संस्कृत नाटकों में भी अपनी स्वाभाविक बोलचाल की भाषा प्राकृत ही बोलेंगे। अतः उन्होंने संस्कृत नाटककारों को पहले ही सावधान कर दिया है कि नाटकों में संवाद लिखते समय पात्रों की योग्यता का परीक्षण अवश्यम्भावी है। द्वितीय यह कि जो भी नाटक लिखे जाते हैं उनका एक उद्देश्य दृश्य काव्य के रूप में जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत करके रसास्वादन कराना भी है। अतः ऐसे प्रसंगों में सामान्य मजदर आदि लोगों के संवाद भी यदि संस्कत भाषा में रखे जायेंगे तो वे संवाद स्वाभाविक न होकर कृत्रिम प्रतीत होंगे और कृत्रिम
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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