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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 ग्रीष्म को गिम्ह, श्लक्ष्ण को सण्ह, उण्ण को उण्ह, कृष्ण को कण्ह यक्ष को जक्ख तथा पर्यङ्क को पल्लंक रूप बनता है। ब्रह्मा आदि शब्दों में ह और म के योग में ये दोनों वर्ण परस्पर एक दूसरे का स्थान ग्रहण कर लेते हैं। फलस्वरूप ब्रह्मा का बम्हा रूप बनता है। बृहस्पति शब्द में पकार का फकार होकर बुहफ्फई रूप बनता है। इसी प्रकार यज्ञ का जण्ह, भीष्म को भिम्ह रूप बनता है। जब क किसी वर्ण के साथ संयुक्त हो या वर्ण ऊपर रेफ आदि अन्य वर्ण हो तो उच्चारण के क्रम में इनका रूप संयोग रहित होता है, जैसे शक्र को सक्क और अर्क को अक्क आदि। संस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्रयुक्त होने वाली जिन चार भाषाओं का प्रारंभ में उल्लेख किया गया है, उनमें देवगण की भाषा अतिभाषा, राजाओं अथवा शिष्ट जन की भाषा आर्यभाषा होती है। जाति भाषा के दो भेद हैं - अनार्य और म्लेच्छ। भरतमुनि का मत है कि नाटकों में जात्यन्तरी भाषा का प्रयोग ग्राम तथा जंगल में रहने वाले पशु-पक्षियों के मुख से बुलवाने में करना चाहिए। भरतमनि के अनुसार सामान्य रूप से धीरोद्धत. धीरललित. धीरोदात्त ओर धीरप्रशान्त- इन चार प्रकार के नायकों के मुख से संस्कृत भाषा का ही प्रयोग करना चाहिये, किन्तु आवश्यकतानुसार प्राकृत भाषा का भी प्रयोग किया जा सकता है। विशेषकर उस परिस्थिति में जब कोई राजा आदि उत्तम पात्र ऐश्वर्य पाकर मदोन्मत्त हो जाये अथवा दारिद्रय से ग्रस्त हो जाये। जो पात्र किसी कारण विशेष से साध- सन्यासी का वेष धारण करते हैं अथवा वाजीगर के रूप में संस्कृत नाटकों में अपनी भूमिका निभाते हैं, अथवा बालक हैं, भूत-पिशाच से ग्रस्त हैं, स्त्री प्रकृति के पुरुष हैं, नीच जाति के पुरुष हैं, कफनी-झोलाधारी पाखण्डी साधु हैं तो इनके मुख से भी प्राकृत भाषा में संवाद प्रस्तुत करना चाहिये। आचार्य भरतमनि के अनुसार संस्कृत नाटकों में अप्सराओं आदि के संवाद सामान्यतः संस्कृत भाषा में रखने का विधान है, किन्तु जब वे अप्सराएँ आदि पृथिवी पर विचरण कर रही हों तो उनके संवाद स्वाभाविक या स्वेच्छापूर्वक प्राकृतभाषा में ही रखना चाहिये। हाँ? जब ये किसी मानव की पत्नी के रूप में रहें तब अवसरानुकूल संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा में संवाद रखना चाहिए। बर्बर, किरात, आन्ध्र और दविड़ जाति से सम्बन्धित पात्रों के मुख से केवल शौरसेनी प्राकृत से मिलती-जुलती भाषा का ही प्रयोग करना चाहिये। प्राकृत भाषा के जिन सात भेदों की चर्चा प्रारंभ में की गई है, उनमें से राजा के अन्तःपुर के रक्षक और सेवक मागधी प्राकृत तथा राजपुत्र, चेट और श्रेष्ठिजन के मुख से अर्धमागधी प्राकृतभाषा का प्रयोग कराने का विधान है। विदषक और उनके जैसे अन्य पात्रों की भाषा प्राच्या, धूर्तवृत्ति के पात्रों की भाषा अवन्ती रखी जाये। यदि कोई दिक्कत न हो तो नायिका और उनकी सखियों की भाषा में शौरसेनी प्राकृत भाषा का प्रयोग किया जाये। सैनिकों, जुआरियों और नगर के उत्तरभाग में रहने वाले खसों अर्थात् पहाड़ी प्रदेश के निवासी लोगों की अपनी देशभाषा बाह्रीकी प्राकृत रखी जाये।" संस्कृत नाटकों में शकार, शक और शबर जाति के या उनके अनुरूप स्वभाव वाले लोगों की भाषा शाकारी रखना उचित है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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