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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
११. मंखलीपुत्र, १२. याज्ञवल्क्य, १३. मैत्रेयभयाली, १४. बाहुक, १५. मधुरायण, १६. सोरियायण, १७. बिन्दु, १८. वर्षपकृष्ण, १९. आरियायण, २०. उत्कलवादी।
पत्तेय बुद्धमिसिणो, वीसं तित्थे अरिहणेमिस्स। पासस्स य पधण्णरस, वीरस्स विलीणमोहस्स॥८ णारद-वज्जिय-पुत्ते असिते अंगरिसि-पुप्फसाले य। वक्कलकुम्मा केवलि कासव तह तेतलिसुते य॥ मंखली जण्णभयालि वाहुय महु सोरियाण विद्विपृ।
वरिसकण्हे आरिय उक्कलवासादी य तरूणो य॥९ ये सभी उल्लेख यह कहने के लिय पर्याप्त है कि तीर्थकर नेमिनाथ एक प्रभावशाली ऐतिहासिक व्यक्तित्व के धनी थे जिन्होंने अहिंसा का प्रचार कर समाज को एक नई आध्यात्मिक ज्योति दी। उसी ज्योति से पार्श्वनाथ और महावीर ने भी किसी न किसी रूप में प्रकाश पाया। ___बौद्ध साहित्य में भी उनका पुनीत स्मरण हुआ है। अंगुत्तरनिकाय' में अरनेमि के लिए छह तीर्थकरों में एक नाम दिया गया। ‘मज्झिमनिकाय' में उन्हें ऋषिगिरी पर रहने वाले चौबीस प्रत्येक बुद्ध में अन्यतम माना गया है (इसिगिलिसुत्त)। दीघनिकाय' में दृढ़नेमि' नामक चक्रवर्ती का उल्लेख आया है। इसी नाम का एक यक्ष भी था (दीर्घनकाय, भाग ३, पृ. २०१)। ऋग्वेद (७.३२.२०) में नेमि का और यजुर्वेद (२५.२८) में अरिष्टनेमि का उल्लेख आता है।
नेमिनाथ का प्रभाव भारत के बाहर भी रहा है। यह तथ्य एक ताम्रपत्र से प्रगट होता है। कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक राजस्थान में लिखा है कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में बुद्ध या चार मेधावी महापुरुष हुए हैं। इनमें पहले आदिनाथ या ऋषभदेव थे, दूसरे नेमिनाथ थे। नेमिनाथ ही स्केण्डविया निवासियों के प्रथम ‘ओडिन' तथा चीनियों के प्रथम ‘फो' नामक देवता थे। डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार ने इसके अतिरिक्त १९ मार्च १९३५ के साप्ताहिक टाइम्स ऑफ इण्डिया में काठियावाड से प्राप्त एक प्राचीन ताम्रशासन प्रकाशन किया था। उसके अनुसार उक्त दानपत्र पर जो लेख अंकित था उसके भाव यह है कि 'सुमेर जाति में उत्पन्न बाबुल के खिल्दियान सम्राट नेबुचिदनज्जर ने जो रेवताचल (गिरिनार) के स्वामी नेमिनाथ की भक्ति की तथा उनकी सेवा में दान अर्पित किया। दानपत्र पर उक्त पश्चिमी एशियाई नरेश की मुद्रा भी अंकित है। और उसका काल ईसा पूर्व ११४० के लगभग अनुमान किया जाता है। महाभारत में अरिष्टनेमि के लिए नेमिजिनेश्वर और 'तार्क्ष्य' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। महाभारत से ही नेमिनाथ सम्बन्धी निम्नलिखित उल्लेख उद्धृत किये जा सकते हैं। अशोकस्तारणस्तारः शरः शौरिर्जिनेश्वरः, १४९-५०; कालनेमि महावीर ः शूरः शौरिर्जिनेश्वर ः १४९-८२; शान्तिपर्व, २८८. ४,२८८.५-६)। तार्क्ष्य ने सगर को उपदेश दिया कि मोक्ष सुख ही सर्वोत्तम सुख है। हम जानते हैं कि वैदिक विशेषतः ऋग्वेद दर्शन में मोक्ष को साध्य नहीं माना गया है, परन्तु तार्क्ष्य अरिष्टनेमि