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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 अरिष्टनेमि के संदर्भ में कतिपय वैदिक और पौराणिक साहित्य से उल्लेख प्रस्तुत कर देना उपयोगी होगा १. अरिष्टनेमि परिद्यामियानं - ऋग्वेद, १.२५. १८०.१० २. अरिष्टनेमि अभि नः स त्रस्व - वही, ८.८.९७.८ ३. अरिष्टनेमि और तार्क्ष्य पर पूरा सूत्र देखें - ऋ. १०वां मण्डल, सू. १७८ ४. अरिष्टनेमि वृद्धश्रवाः - सन्यासोपनिषद / १.६ ५. दक्षप्रजापतिपुत्र अरिष्टनेमि - विष्णुपुराण, १५.१३६ ६. स्वस्तिनस्ताक्ष्यौ अरिष्टनेमि - माण्डूक्योपनिषद इसी तरह के अरिष्टनेमि से संबद्ध और भी उल्लेख देखिए - अरिष्टनेमिननं वीरो - लिंगपुराण, ६८.३६, चन्द्रवंशज अरिष्टनेमिः (१५.१३६), दृढनेमि - वही, (४.१९४९), अरिष्टनेमि हरिवंशपुराण, २०.१४७-१४९; मार्कण्डेय पुराण- २.१; आदि। अरिष्टनेमि अपने समय के महान् प्रभावक और युगप्रवर्तक महापुरुष थे। यह तथ्य इसी से प्रमाणित है कि वैदिक साहित्य में जगह-जगह मंगल भावना से प्रेरित हो वैदिक ऋषियों ने उनका गुणगान किया है...... ___ (अ) ओम् भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः, भद्रं पश्येमाक्षिभिर्यजत्राः स्थिरै रंगैस्तुष्टुवांस्तनुभिः, व्यशेम देवहितं यदायु।। स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्तिनस्तार्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो वृहस्पति र्दधातु।ओं शन्तिः शान्तिः शान्तिः ....... प्रश्न उपनिषद् (१) त्वयूषु वाजिनं देवजूतं सहावातं तरुतारं रथानाम्। अरिष्टनेमि पृतनाजमाशुंस्वस्तये तार्क्ष्य मिहा हुवेम॥१॥१ अर्थात् बलवान देवों से पूजनीय, प्राणियों को पार उतारने वाले (अर्थात् तीर्थकर), सेनाओं के विजेता (कर्मरूपी शत्रुसेनाओं के विजेता जिन), तार्क्ष्य पुत्र (सूर्य पुत्र) अरिष्टनेमि को हम आत्म-कल्याण के लिए आह्वान करते हैं। तं व रथं वयमधा हुवेन स्तोमैरश्विना सुचिताय नव्यम्। अरिष्टनेमि द्यामियानि विद्या मेषं वृजनं जीस्दानुम्॥२ अर्थात् जिसमें बड़े-बड़े घोड़े जुते हैं ऐसे रथ में बैठे हुए सूर्य के समान आकाश में चलने वाले विद्या रूपी रथ में बैठे हुए अरिष्टनेमि का हम आह्वान करते हैं। स्वति न इन्दो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषाः विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तायो ऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो वृहस्पति र्दधातु॥३ अर्थात् आयु के अन्तिम भाग वृद्धावस्था में वामन ने तप किया, उसी तप के प्रभाव से उसे शिव के दर्शन हुए - वह शिव (कल्याण प्रदाता) पद्मासन में स्थित, श्याममूर्ति, नेमिनाथ महान भयंकर कलिकाल में सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने वाले और दर्शन एवं स्पर्शन से ही
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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