SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 51 अर्थात् दिशाओं की मर्यादा के भीतर बिना प्रयोजन पापबन्ध के कारणभूत कार्यों से विरक्त होना ही अनर्थदंड विरमण व्रत है। उक्त गाथा में अप् एवं अर्थक शब्द को सन्धि करके अपार्थक शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है-निष्प्रयोजन। यही शब्द इस व्रत की भावना को व्यक्त करता है कि निष्प्रयोजन की गई पापरूप प्रवृत्ति का त्याग आवश्यक ही नहीं, अनिर्वाय है। जैन परम्परानुसार त्रियोग सम्पन्न अशुभ उपयोग रूप प्रवृत्ति ही दण्ड है, जिसका त्याग किया जाना व्रत की परिधि में आता है। यह जैन श्रावक व्रतों का ही वैशिष्ट्य है कि दण्ड के विधान का त्याग किया जाना एक व्रत की कोटि के अन्तर्गत समाहित है। इसीलिए आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्डश्रावकार में मुनिराज को अदण्डधर-अशुभ उपयोगरूप मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करने से रहित, कहते हैं। पापोदेशहिंसादानापध्यानदुः श्रुती पंच। प्राहुः प्रमादचर्यानर्थदण्डधरा।।७५॥रत्नक. अर्थात् अशुभ-उपयोगरूप दण्ड को धारण नहीं करने वाले (अदण्डधरा) गणधरादिदेव ५ हेतुओं को अनर्थदण्ड कहते हैं। वे हैं- पापोदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति, प्रमाद। इन्हीं पांचों के संदर्भ में आचार्य विवेचन करते हुए इस प्रकार कहते हैं - ___पापोदेश :- तिर्यञ्चों को कष्ट देना, ठगना, हिंसा का बढ़ाने वाली कथाओं का प्रसंग उपस्थित करना पापोदश है। हिंसादान :- मनुष्य, तिर्यञ्चों की हिंसा के साधन- फरसा, कृपाण, कुदारी, बन्दूक, तोप आदि अस्त्र-शस्त्र, सांकल आदि का देना हिंसा दान है। (रत्नक. ७६) अपध्यान :- राग-द्वेष से परस्त्री तथा परपुत्रादिकों के मारण, बन्धन, छेदन आदि हो जाये, ऐसा चिन्तवन करना अपध्यान है। (रत्नक. ७७) दुःश्रुति :- आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, राग-द्वेष, अहंकार, इन्द्रिय-विषय-वासना से मन को संक्लेशित करने वाले शास्त्रों का श्रवण दुःश्रुति है। (रत्नक. ७९) प्रमाद :- निष्प्रयोजन पृथ्वी को कुरेदना, जल को छींटना या उछालना, अग्नि जलाना-बुझाना, वायु या पंखा झलना तथा वनस्पति छेदना आदि आरम्भपूर्ण क्रियाएँ करना प्रमाद है। (र.क.८०) रत्नकरडक श्रावकाचार में व्रतों के वैशिष्ट्य को उजागर करने में आचार्य समन्तभद्र की दृष्टि और भी स्पष्ट दिखाई देती है, जब वे अणुव्रतों का पालन करने वालों की कथाओं के माध्यम से दृष्टान्त देते हैं। उन्होंने अहिंसाणुव्रत का पालन करने वाले यमपाल नामक चाण्डाल की कथा, सत्याणुव्रत का पालन करने वाले धनदेव की कथा, अचौर्याणुव्रत का पालन करने वाले राजकुमार वारिषेण की कथा ब्रह्मचर्याणुव्रत का पालन करने वाली नीली वणिक पुत्री की कथा और परिग्रह परिमाणव्रत का पालन करने वाले जय राजा, जो उत्तम-पूजातिशय को प्राप्त हुए, की कथा देकर अणुव्रतों के वैशिष्ट्य को उद्धृत किया है। इसी
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy