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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 अर्थात् श्रावक के तीन प्रकार का चरित्र होता है- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत। वे इस प्रकार हैं :पांच अग्रवुत इस प्रकार हैं -
१. अहिंसाणुव्रत - स्थूल- मोटे तौर पर, अपवाद रखते हुए प्राणातिपात से निवृत्त होना। २. सत्याणुव्रत - स्थूल मृषावाद से निवृत्त होना। ३. अचौर्याणुव्रत - स्थूल अदत्तादान से निवृत्त होना। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत - स्वदारसंतोष - अपनी परिणीता पत्नी तक मैथुन की सीमा करना।
५. अपरिग्रहाणुव्रत - इच्छा-परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण करना। तीन गुणव्रत इस प्रकार हैं :
१. दिग्व्रत - विभिन्न दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या सीमाकरण। २. अनर्थदंड विरमण- आत्मा के लिए अहितकर या आत्मगुणघातक निरर्थक प्रवृत्ति
का त्याग। ३. उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत- उपभोग- जिन्हें अनेक बार भोगा जा सके, ऐसी
वस्तुएँ- जैसे वस्त्र आदि तथा परिभोग जिन्हें एक ही बार भोगा जा सके- जैसे भोजन
आदि, इनका परिमाण-सीमाकरण। चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं :१. सामायिक - समता या समत्वभाव की साधना के लिए एक नियत समय। (न्यूनतम)
एक मूहूर्त-४८ मिनिट में किया जाने वाला अभ्यास। २. देशावकाशिक - नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों में निवृत्ति-भाव की बुद्धि का अभ्यास। ३. पोषधोपवास - यथाविधि आहार, अब्रह्मचर्य अदि का त्याग। तथा४. वैयावृत्य - गुणों में अनुराग से संयमी अथवा तपस्वी जनों के खेद को दूर करना
वैयावृत्य है। श्रावकव्रतों का वैशिष्ट्य -
आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्डक श्रावकाचार में प्रत्येक व्रत के स्वरूप एवं फल पर विचार करते हैं। अणुव्रतों को धारण करने का फल बतलाते हुए कहते हैं
पञ्चाणुव्रतनिधयो, निरतिक्रमणा फलन्ति सुरलोकं।
यत्रावधिरष्टगुणा, दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते॥६३॥रत्न.क. आचार्य इस गाथा में अणुव्रत के धारण करने के चार फल दिखा रहे हैं। अर्थात् जो अणुव्रतों का निरतिचार पूर्वक पालन करता है, उसे १ देव पर्याय की प्राप्ति २ अवधिज्ञान की प्राप्ति ३ अष्ट-लब्धियों की प्राप्ति ४ दिव्य शरीर की प्राप्ति होती है। यह श्रावक के अणुव्रत धारण करने की ही फल है जो अणुव्रतों के वैशिष्ट्य को उजागर करता है। अनर्थदण्ड विरमणव्रतः
अभ्यन्तरदिगवधेरपार्थकेभ्यः सपापयोगेभ्यः। विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुव्रतधरानण्यः॥७४॥रत्नक.