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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
जो धान्य-सरिसवया (सरसों) हैं, वे दो प्रकार हैं- शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत। उनमें जो अशस्त्रपरिणत हैं अर्थात् जिनको अचित्त करने के लिए अग्नि आदि शस्त्रों का प्रयोग नहीं किया गया है, अतएव जो अचित्त नहीं है, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। ___ जो शस्त्रपरिणत हैं, वे दो प्रकार के हैं- प्रासुक और अप्रासुक। हे शुक! अप्रासुक भक्ष्य नहीं है। उनमें जो प्रासुक हैं, वे दो प्रकार के हैं- याचित (याचना किये हुए) और अयाचित (नहीं याचना किये हुए)। उनमें जो अयाचित हैं, वे अभक्ष्य हैं। उनमें जो याचित हैं, वे दो प्रकार के हैं। यथा-एषणीय और अनेषणीय। उनमें जो अनेषणीय हैं, वे अभक्ष्य हैं। ___ जो एषणीय हैं, वे दो प्रकार के हैं- लब्ध (प्राप्त) और अलब्ध (अप्राप्त)। उनमें जो अलब्ध हैं, वे अभक्ष्य हैं। जो लब्ध हैं वे निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं। 'हे शुक ! इस अभिप्राय से कहा है कि सरिसवया भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं।
ज्ञाताधर्मकथा के उक्त दृष्टांत में यद्यपि श्रमण के भक्ष्य और अभक्ष्य का विवेचन किया गया है किन्तु विषय के आलोक में यहाँ यह विशेष रूप से कहा जा सकता है कि अभक्ष्य का त्याग अनावश्यक संग्रह एवं हिंसा के त्याग की भावना को व्यक्त करता है। यदि व्यक्ति संयमपूर्ण आहार को ग्रहण करता है तो एक ओर स्वास्थ्य और धर्म आराधना का पालन तो होता ही है, साथ ही साथ आर्थिक दृष्टि से वह भी अपने आप को समृद्ध करता है।
श्रावक शब्द - श्रा, व एवं क इन तीन शब्दों के योग से बनता है। जिसमें श्रा शब्द से = श्रद्धा, व शब्द से = विवेक तथा क शब्द से = क्रिया का अर्थ प्रदर्शित होता है। अतः श्रावक का अर्थ विवेकवान विरक्तचित्त अणव्रती अथवा गृहस्थ होता है। जैन परम्परा में श्रावक के तीन भेद- पाक्षिक (निजधर्म का पक्ष मात्र करने वाला), नैष्ठिक (व्रतधारी गृहस्थ जो प्रतिमाएँ धारण करता है) तथा साधक (जो प्रतिक्षण अपनी साधना में लगा रहता है) प्राप्त होते हैं। ___जैन परम्परा में श्रावक धर्म का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों में रत्नकरण्डक श्रावकाचार
अतिप्राचीन ग्रन्थ है। आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार, शिवार्य ने भगवती आराधना नामक ग्रन्थ लिखकर श्रमणधर्म का प्रतिपादन किया वहीं पं. आशाधर जी ने सागार धर्मामृत एवं अनगारधर्मामृत नामक ग्रन्थों में दोनों धर्मो का प्रतिपादन किया। आचार्यवसुतिन्दि, अमितगत, जोइन्दु, सकलकीर्ति आदि आचार्यों ने श्रावकधर्म के ग्रन्थों की रचनाकर जैन साहित्य को समृद्ध किया। भगवान् महावीर ने जैनागमों में अगारधर्म बारह प्रकार का बतलाया है। श्रावक धर्म का प्रतिपादन आचार्य समन्तभद्र ने अपने ग्रन्थ रत्नकरण्ड श्रावकाचार में विस्तार से किया है। उन्होंने ७ अधिकारों-सम्यग्दर्शन अधिकार (७८ गाथाएं), सम्यग्ज्ञान अधिकार (१४ गाथाएं), अणुव्रत अधिकार (४१ गाथाएं), गुणव्रत अधिकार (२४ गाथाएं), शिक्षाव्रत अधिकार (४४ गाथाएं), सल्लेखना अधिकार (२० गाथाएं), सव्रत अधिकार (१७ गाथाएं), एवं अन्य १२ गाथाएँ = कुल १५० गाथाओं में श्रावक धर्म का प्रतिपादन किया है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने श्रावक के चरित्र को परिभाषित करते हुए लिखा है -
गृहीणां त्रेधा त्रिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षा-वृतात्मकं चरणं। पंच-त्रि-चतुर्भेदं त्रयं यथासंख्यामाख्यातम्॥५१॥रत्नक.