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________________ 48 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 अर्थात् मन, वचन एवं काय द्वारा कृत, कारित, अनुमोदना पूर्वक पांचों पापों का पूर्णरूप से त्याग करना ही महाव्रत है। मुनिवर्ग महाव्रतों का पालन करते हैं तथा श्रावक वर्ग अणुव्रत सहित द्वादश व्रतों का पालन करते हैं। श्रावक धर्म का विस्तृत विवरण आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार नामक ग्रन्थ में दिया है तथा उसमें उन्होंने श्रावक के विभिन्न धर्मों को विवेचित किया है। श्वेताम्बर जैन आगमों में ज्ञाताधर्मकथा द्वादशांगी के अन्तर्गत परिगणित है। इसके पंचम अध्ययन में शैलक का कथानक दिया गया है, जिसमें एक प्रसंग थावच्चा पुत्र एवं शुक के बीच हुए संवाद सहित यहाँ अपरिग्रह की प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए दृष्टव्य है - मूल पाठ - 'सरिसवया ते भंते ! भक्खेया अभक्खेया? 'सुया! सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि।' से केणठेणं भंते! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि? 'सुया!सरिसवया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-मित्तसरिसवया धन्नसरिसवया य। तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- सहजायया, सहवड्ढियया सहपंसुकीलियया। तेणं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थं णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नता, तं जहा-फासुगा य असफासुगा य। अफासुगा णं सुया! नो भक्खेया। तत्थ णंजे ते फासुया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा जाइया य अजाइय। तत्थं णं ते अजाइया ते अभक्खेया। तत्थ णं जे ते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहाएसणिज्जा य अणेसणिज्जा य। तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं अमक्वेया। तत्थ णं जेते एसणिज्जा ले दुविहा पन्नता, तं जहा-लद्धा य अलद्धाय। तत्थ णं ते अलद्धा ते अभक्खेया। तत्थ णं जे ते लद्धा ते निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अद्रेणं सुया! एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि। शुक परिव्राजक ने प्रश्न किया - ‘भगवन् ! आपके लिए ‘सरिसवया' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं।' थावच्चापुत्र ने उत्तर दिया- 'हे शुक! 'सरिसवया' हमारे लिए भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं।' शुक ने पुनः प्रश्न किया- 'भगवन्! किस अभिप्राय से ऐसा कहते हैं कि 'सरिसवया (सृदश वय वाले मित्र) और धान्य-सरिसवया भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं? थावच्चापुत्र उत्तर देते हैं- 'हे शुक ! ‘सरिसवया' दो प्रकार के कहे गये हैं- मित्रसरिसवया (सदृश वय वाले मित्र) और धान्य-सरिसवया (सरसों)। इनमें जो मित्र-सरिसवया हैं वे तीन प्रकार के हैं। १. साथ जन्मे हुए, २. साथ बढ़े हुए, ३. साथ-साथ धूल में खेले हुए। यह तीन प्रकार के मित्र-सरिसवया श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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