________________
अनेकान्त 66/3, जुलाई - सितम्बर 2013
क्रम में अतीचार पूर्वक क्रमशः हिंसा आदि पांच पापों में संलग्न धनश्री की कथा, सत्यघोष पुरोहित की कथा, वत्स्य देश के एक तपस्वी की कथा, यमदण्ड कोतवाल की कथा तथा श्मश्रुनवनीत वणिक की कथा के माध्यम से भी श्रावक व्रतों का वैशिष्ट्य उजागर हुआ है।
52
रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने द्वादशव्रतों का विवेचन, उसके लक्षण, फल, अतीचार तथा उनके पालन करने वालों की कथाओं को उद्धृत करते हुए, किया है | व्रतों के उक्त वैशिष्ट्य के साथ-साथ आधुनिक सामाजिक दृष्टि से भी इनका महत्वपूर्ण स्थान व वैशिष्ट्य उजागर होता है । अतः जैनदर्शन के संदर्भ में श्रावक के व्रतों की व्यवस्था में निम्नांकित बिन्दुओं को रेखांकित किया जा सकता है।
१. अहिंसा की व्यावहारिकता
२. श्रम की प्रतिष्ठा
३. दृष्टि की सूक्ष्मता
४. आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन
५. साधन-शुद्धि पर बल
६. अर्जन का विसर्जन
१. अहिंसा की व्यावहारिकता -
अहिंसा के संदर्भ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा है -
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥। पुरूषार्थसिद्ध्युपाय
अर्थात् जहाँ रागादि भावों का अभाव होगा, वहीं अहिंसा का प्रादुर्भाव हो सकता हैमहावीर ने समता के साध्य को प्राप्त करने के लिए अहिंसा को साधन रूप बताया है। अहिंसा मात्र नकारात्मक शब्द नहीं है, बल्कि इसके विविध रूपों में सर्वाधिक महत्त्व सामाजिक होता है।वैभवसंपन्नता, दानशीलता, व्यावसायिक कुशलता, ईमानदारी, विश्वसनीयता प्रामाणिकता जैसे विभिन्न अर्थ प्रधान क्षेत्रों में अहिंसा की व्यावहारिकता को अपनाकर श्रेष्ठता का मापदण्ड सिद्ध किया जा सकता है | अहिंसा की मूल भावना यह होती है कि अपने स्वार्थो, अपनी आवश्यकताओं को उसी सीमा तक बढ़ाओ, जहाँ तक वे किसी प्राणी के हितों को चोट नहीं पहुँचाती हों। अतः अहिंसा व्यक्ति-संयम भी है और सामाजिक - संयम भी । २. श्रम की प्रतिष्ठा -
साधना के क्षेत्र में श्रम की भावना सामाजिक स्तर पर समाधृत हुई । इसीलिए महावीर ने कर्मणा श्रम की व्यवस्था को प्रतिष्ठापित करते हुए कि व्यक्ति कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनता है। उन्होंने जन्मना जाति के स्थान पर कर्मणा जाति को मान्यता देकर श्रम के सामाजिक स्तर को उजागर किया, जहां से श्रम अर्थ-व्यवस्था से जुड़ा और कृषि, गोपालन, वाणिज्य आदि की प्रतिष्ठा बढ़ी।
जैन मान्यतानुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था में जब कल्पवृक्षादि साधनों से आवश्यकताओं की पूर्ति होना संभव न रहा, तब भगवान् ने असि और कृषि रूप जीविकोपार्जन