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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 “पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये श्रावक के बारह व्रत होते हैं। ये व्रत मनुष्य और देवों के सुखों का उपभोग कराकर जीव को निर्वाण पद तक ले जाते हैं। उन्होंने आगे इसी ग्रन्थ के पद्य ७६ में लिखा है - एहु धम्म जो आयरइ बंभणु सुददु वि कोइ। सो सावउ किं सावयहं अण्णु कि सिरि मणि होइ।४ जो (उक्त निर्दिष्ट अणुव्रतादि रूप बारह प्रकार के) धर्म का आचरण करता है, वह चाहे ब्राह्मण, शूद्र कोई भी हो ‘श्रावक' कहलाता है। श्रावक के शिर पर क्या अन्य कोई मणि रहता है। वस्तुतः श्रावक की पहचान उक्त व्रत ही है। गृहस्थ के मूलगुण : कतिपय श्रावकाचारों में श्रावक की आचरण संहिता में गृहस्थों के मूलगुण इस प्रकार वर्णित हैं : मद्य, मांस और मधु के त्याग सहित अणुव्रतों को गृहस्थों के 'मूलगुण' कहते हैं अथवा मद्य, मधु, रात्रि भोजन व पंच उदम्ब फल का त्याग, देववन्दना, जीव दया करना और पानी छानकर पीना - ये आठ 'मूलगुण' श्रावक के माने गये हैं। उत्तरगुण के साथ में दान, पूजा, शील और उपवास - ये चार श्रावक के धर्म हैं।५। पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, जिनपूजन, अतिथि सत्कार, बन्धु बान्धवों की सहायता और आत्मोन्नति - ये श्रावक के पाँच कर्त्तव्य हैं। अथवा जिन पूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान - ये छह कर्म श्रावक के लिए प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक कार्य हैं। श्रावक के भेद - श्रावक के तीन भेद हैं - १. पाक्षिक, २. नैष्ठिक, औरर ३. साधकं १. पाक्षिक श्रावक - मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भाव से वृद्धि को प्राप्त होते हुए समस्त हिंसा का त्याग करना जैनों का पक्ष कहलाता है। इसलिए गृहस्थ धर्म में जिनेन्द्र भगवान् के प्रति श्रद्धा रखता हुआ जो श्रावक हिंसा आदि पांच पापों को स्थूल रूप से त्याग करने का अभ्यास करता है वह ‘पाक्षिक' श्रावक कहलाता है। वह हिंसा आदि से बचने के लिए सबसे पहले मांस, मदिरा एवं शहद तथा पंच उदुम्बर फलों को छोड़ता है। वह गुरुजनों की रक्षा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान रूप गृहस्थों के लिए प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक कार्य भी करता है। २. नैष्ठिक श्रावक - ___जो श्रद्धापूर्वक व्रत, सामायिक आदि ग्यारह प्रतिमाओं में से, एक दो या सभी प्रतिमाएँ ग्रहण करता है, वह “नैष्ठिक श्रावक" कहलाता है। ३. साधक श्रावक - ___ जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवन के अन्त में अर्थात् मृत्यु समय, शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधना करता है, वह “साधक' कहा जाता है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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