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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 अपने से भिन्न स्त्री, पुत्र, मित्र आदि बाह्य पदार्थों को 'अपना मानना' रूप अनादि कालीन अविद्या रूपी वात, पित्त वा कफ की विषमता से उत्पन्न होने वाली आहार आदि चारों संज्ञाओं रूपी ज्वर से पीड़ित होने के कारण, जो निरन्तर मुख्यतया स्वात्मज्ञान से विमुख होकर राग तथा द्वेष से इष्ट तथा अनिष्ट विषयों में प्रवृत्त रहता है, उसे 'सागार' कहते हैं। गृहस्थाश्रम और श्रावक :
भारतीय संस्कृति में गृहस्थाश्रम का अत्यधिक महत्त्व है। गृहस्थाश्रम में निवास करने वाले व्यक्ति के लिए जैनधर्म में श्रावक, सावय, सावग, उपासग, समणोपासक, गिही, अगारिक, देशसंयमी, आगारी और सागार शब्दों का प्रयोग किया गया है। 'श्रावक' शब्द की व्युत्पत्ति और निरुक्ति :
श्रु + ण्वुल् = श्रावक। श्रृणोति गुर्वादिभ्यः धर्मम् इति श्रावकः।
अर्थात् जो श्रद्धापूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है, वह 'श्रावक' है। निरुक्तिः
श्रन्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्ति इति श्राः, वपन्ति गुणवत् सप्तक्षेत्रेषु धन बीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति क्लिष्ट कर्मरजो विक्षिपन्तीति काः,
ततः कर्मधारये 'श्रावकाः इति भवति।२ इसका तत्पार्य यह है कि - "श्रावक" पद में तीन अक्षर हैं, इनमें से “श्रा” शब्द से तत्त्वार्थ - श्रद्धान का बोध होता है। 'व' शब्द - सप्त धर्म - क्षेत्रों में धन रूप बीज बोने का प्रेरक है। 'क' शब्द - क्लिष्ट कर्म या महापापों को दूरे करने का संकेत करता है। इस प्रकार कर्मधारय समास में 'श्रावक' शब्द निष्पन्न होता है।
श्रावक स्वरूप : कुछ विद्वानों ने 'श्रावक' पद के अर्थ को और भी पल्लवित किया है - जैसे-जो श्रद्धापूर्वक जैन शासन को सुने, दीन-दुःखियों को दान दे, सम्यग्दर्शन को वरण करे, सुकृत और पुण्य कर्म करे, संयमाचरण करे,उसे विद्वज्जन 'श्रावक' कहते हैं। श्रावक की परिभाषा:
संक्षेप में "श्रावक" को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है -
सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति श्रद्धा रखने वाले सद् गृहस्थ को 'श्रावक' कहते हैं अथवा पंच परमेष्ठी का भक्त, दान व पूजन में तत्पर, भेद- विज्ञान रूपी अमृत को पीने का इच्छुक तथा मूलगुण व उत्तरगुणों का पालन करने वाला व्यक्ति 'श्रावक' कहलाता है, अथवा देशविरत नामक पंचम गुणस्थान के दर्शन प्रतिमा आदि स्थानों में मुनिव्रत का इच्छुक होता हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है, उसे 'श्रावक' कहा गया है।
१. वसुनन्दिश्रावकाचार, पृ.२० पर उद्धृत पद्य के आधार पर।
आ. देवसेन ने अपभ्रंश भाषा में रचित श्रावकाचार विषयक “सावय धम्म दोहा” में श्रावक की परिभाषा पद्य ५९ में देते हुए कहा है