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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 यहाँ हमारा अनुरोध यह है कि - अधिकार तो है परन्तु यदि आदमी कर्त्तव्य की जमीन पर खड़े हुए बगैर उसे पाना चाहेगा, तो वह विफल हो जाएगा। श्रावकाचार गृहस्थों की आचरण संहिता है। वह बहुत व्यावहारिक है। उसमें जो समाधान सुझाये हैं, वे स्वस्थ नागरिक के अधिकारों और कर्तव्यों का बोध कराते हैं।' वे व्यावहारिक हैं और तमाम समस्या वृत्तों को छूते हैं। साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर जी का यह कथन वर्तमान नागरिकों की जीवन शैली के यथार्थ का समर्थ निदर्शक है “गरीबी की गरिमा, सादगी का सौंदर्य, संघर्ष का हर्ष, समता का स्वाद और आस्था का आनन्द, ये सब हमारे आचरण से पतझर के पत्तों की तरह झर गये हैं।" “मानव जीवन में श्रावकाचार की भमिका' विषय पर चिंतन का लक्ष्य भी यही है कि - मनुष्य के जीवन का यह पतझर खत्म होवे और बसन्त का वैभव पुनः प्रकट होवे। इस संदर्भ में हमारा सुस्पष्ट चिन्तन है कि यह तब संभव है, जब व्यक्ति और समाज नैतिकतापूर्ण चिंतन के साथ मनन और तदनुसार सन्मार्ग में प्रवृत्त होवे- प्रशस्त आचरण को अपनी जीवन शैली का आवश्यक अंग बनावे। अन्यथा भौतिक समृद्धि के लिए होने वाली आपाधापी में हमारे जीवन में पतझर के खात्मा और बसन्त के वैभव का समागम की कोई संभावना नहीं है। ___ यहाँ हमारा कहना है कि - आम आदमी सौम्य, शान्त और तनाव- रहित जीवनचर्या के लिए श्रावक की आचरण संहिता को पहले चरण में स्वाध्याय करे और तब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों के अनुरूप उसे अपनी दैनन्दिन व्यवस्था से यथासंभव जोड़े। ऐसा करते समय उसे अपने सर्वोच्च अधिकार 'शिव-सुख' की प्राप्ति का भान तो रहे ही, साथ ही तदनुरूप कर्त्तव्यों/आचरण संहिता के पालन का बोध भी बना रहे। "छहढाला' की ये पंक्तियाँ वह हमेशा गुनगुनाता रहे - "आतम को हित है सुख, सो सुख, आकुलता बिन कहिए। आकुलता शिव मांहि न ताते शिव मग लाग्यो चहिए॥" - ३.१ अधिकांश श्रावक तो युग-युगों से अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति बेसुध हैं तभी तो आचार्यकल्प पं. आशाधर जी को लिखना पड़ा - अनाद्यविद्या - दोषोत्थ - चतुः संज्ञा - ज्वरातुराः। शश्वत् स्वज्ञान - विमुखाः सागाराः विषयोन्मुखाः॥१ सागारधर्मामृत, अ.१-पद्य २ (जैसे वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों की विषमता से उत्पन्न होने वाले प्राकृत आदि) चार प्रकार के ज्वरों से पीड़ित होने के कारण मनुष्य हिताहित के विवेक शून्य हो जाता है। उसी प्रकार अनित्य पदार्थों को नित्य, अपवित्र पदार्थों को पवित्र, दुःखों को सुख तथा
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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