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मानव जीवन में श्रावकाचार : वर्तमान परिप्रेक्ष्य
प्रो. डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु'
जीवन की क्रमिकता अधिकांश दर्शनों में स्वीकार की गयी है। यदि कोई कहे कि - 'मैं वर्तमान में जो हूँ, मात्र वही हूँ - न मेरा कोई अतीत है और न कोई भविष्य' - इस कथन में कितनी सच्चाई है? इसे कहने या समझने की जरूरत नहीं है।
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वर्तमान जीवन का पहले के जीवन से और आगे आने वाले (भविष्य) जीवन से श्रृंखला रूप सम्बन्ध न हो तो क्या किसी को अपने वर्तमान जीवन में कर्त्तव्यों की सम्पूर्ति में सच्ची अभिरूचि पैदा हो सकती है- अथवा बनी रह सकती है? क्यों कोई स्थायी प्रभाव वाला कार्य करना चाहेगा, जिसका सीधा लाभ उसे न मिलता हो? अर्थात् नहीं।
वास्तव में वर्तमान केवल वर्तमान ही नहीं है- वर्तमान का अतीत भी है और उसका भविष्य भी है, और यही काल की क्रमिकता है। उसी प्रकार जीवन की क्रमिकता अटूट होती है, जब तक कि आत्मा संसार से मुक्ति न प्राप्त कर ले।
जीवन की क्रमिकता का तात्पर्य है - 'पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म की विद्यमानता और कर्म-सिद्धान्त की अटलता ।' जीवनों की यह श्रृंखला अनन्त काल से चलती आयी है और तब तक चलती रहेगी, जब कि सभी प्रकार के कर्म - बन्धनों से आत्मा मुक्त नहीं हो जाती।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के द्वारा उद्घोषित और संकल्पित राष्ट्रीय स्वतंत्रता के महामंत्र- ‘“स्वराज्य माझा जन्म सिद्ध अधिकार आहे । तो मी घेइनं च' । ('स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है। उसे मैं लूँगा हूँ।) को इसी तारतम्य में हम लोग अपने दृष्टिपथ एवं विचार-परिधि में रखकर के 'शाश्वत स्वतंत्रता' अथ च' स्वाधीनता प्राप्त करने हेतु क्रियान्वित ;म्गमबनजपवदद्ध के लिए जोड़कर युग-युगों से कर्मों की बेड़ियों में जकड़े और जन्म-मरण के चक्र में उलझे अपने आत्मा को सर्व-तन्त्र स्वतंत्र शाश्वत सुख -मोक्ष का राहगीर बनने की नींव-स्वरूप अपने ‘गृहस्थ जीवन की आचरण संहिता' ;ब्वकम वा ब्वदकनबज व िभ्वनेम भ्वसकमतेद्ध अर्थात् ‘श्रावक के आचरण' में परखने और तदनुरूप अपने जीवन में सहेजने का संकल्प लेना आवश्यक है।
लोकमान्य तिलक के उक्त कथन से ध्वन्यर्थ - कि संसार में जीवन - -यापन करने वाले प्राणी का मूल लक्ष्य- भव समुद्र को पारकर “मुक्ति" - लक्ष्मी को प्राप्त करना है यही हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसी मुक्ति रूपी महल में प्रवेश करने हेतु सम्यक् रत्नत्रय रूप कर्त्तव्यों के पालन का, उन्हें आत्मसात् करने का सुदृढ़ संकल्प होना चाहिए। वस्तुतः “सौम्य, शान्त और तनाव रहित जीवन हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।