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________________ 36 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 ग्रहण करने की प्रवृत्ति। भव - जाति (पुनर्जन्म) का कारण है और जाति से ही जरा-मरण होता है। इस प्रकार इस पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है। अविद्या और तृष्णा ही पुनर्जन्म - चक्र के मुख्य चक्के हैं । बौद्ध दर्शन में पुनर्जन्म की यही प्रक्रिया है । (२८) जैन विचारकों का मत है कि “आत्मा का पर- द्रव्य के साथ संयोग होने पर उसको विभिन्न योनियों में घूमना पड़ता है । (२९) हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह रुप अशुभ कर्म करने से जीव नरकादि अशुभ और निम्न योनियों में भ्रमण करता है और अहिंसादि शुभ कर्म करने से जीव मनुष्य देव आदि शुभ योनियों में जन्म लेता है।(३०) यहाँ पर यह ध्यातव्य है कि आत्मा और कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध है, जिसके कारण जीव अनादि काल से आवागमन रुप पुनर्जन्म के चक्र में भ्रमण करता रहता है। जैनाचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार - "इस संसारी जीव के अनादि कर्म-बंध के कारण राग द्वेष रुप स्निग्ध एवं अशुद्ध भाव होते है, उन अशुद्ध राग द्वेष रुप परिणामों के कारण ज्ञानावरणादि रुप आठ द्रव्य कर्मों का बंध होता है। इन द्रव्य कर्मों के उदय से जीव नरक, तिर्यच मनुष्य और देव गतियों को प्राप्त करता है। इन गतियों मे जन्म लेने से शरीर की उपलब्धि होती है और शरीर उपलब्ध होने पर इन्द्रियां होती है और इन्द्रियों के होने पर जीव विषय ग्रहण करता है तथा विषयों के ग्रहण करने से राग द्वेष उत्पन्न होते है । इस प्रकार संसारी जीव कुम्भकार के चक्र के समान इस संसार में भ्रमण करता रहता है । (३१) इस कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि पुनर्जन्म का प्रमुख कारण कर्म और जीव का परिणाम है। आचार्य अमृतचंद स्वामी के अनुसार - "यह जीव शरीर में दूध और पानी की तरह मिल कर रहता है तो भी अपने स्वभाव को छोड़कर शरीर रुप नहीं हो जाता है। रागादि भावों सहित होने के कारण यह जीव द्रव्यकर्म रुपी मल से मलिन हो जाने पर मिथ्यात्व रागादि रुप भाव कर्मों तथा द्रव्य कर्मों से रचित अन्य शरीर में प्रविष्ट होता रहता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि जीव स्वयं शरीरांतर में जाता है ।(३२) अन्य दर्शनो में जिसे सूक्ष्म शरीर की मान्यता प्रदान की है, जैन दर्शन में उसे पांच शरीरों मे से एक कार्मण शरीर कहा गया है, जो समस्त अन्य शरीरों की अपेक्षा सूक्ष्म होता है (३३) और जो समस्त संसारी जीवों को होता है । संसारी जीव की मृत्यु के बाद औदारिकादि समस्त शरीर नष्ट हो जाते हैं, केवल कार्मण शरीर जीव के साथ रहता है। यही कार्मण शरीर जीव को विभिन्न योनियों मे ले जाता है।(३४) जब तक जीव मुक्त नही हो जाता है तब तक इस शरीर का विनाश नहीं होता है । कार्मण शरीर ही अन्य समस्त शरीरों का कारण होता है (३५) इस शरीर के नष्ट होने पर ही जीव का पुनर्जन्म नहीं होता है। कर्म सिद्धांत के अध्ययन से यह बात मालूम होता है कि एक आनुपूर्वी नामक नामकर्म होता है। यही नामकर्म जीव को अपने उत्पत्ति स्थान तक उसी प्रकार पहुँचा देता है, जिस प्रकार रज्जू(रस्सी) से बंधा हुआ बैल अभिॉंट स्थान पर ले जाया जाता है। आनुपूर्वी कर्म वक्रगति करने वाले जीव की सहायता करता है । कार्मण शरीर युक्त जीव अभिष्ट जन्म स्थान पर पहुँच कर औदारिकादि शरीर का स्वयं निर्माण करता है । जैन दर्शन में पुनर्जन्म की यही विधि है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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