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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 35 जिससे जन्म-मरण का चक्र चलायमान रहता है ।(२१) षड्दर्शन रहस्य में पं० रंगनाथ पाठक लिखते है कि “जब तक धर्माधर्म रुप प्रवृत्ति जन्य संस्कार बना रहेगा तब तक कर्मफल भोगने के लिए शरीर ग्रहण करना आवश्यक रहता है । शरीर ग्रहण करने पर प्रतिकूल वेदनीय होने के कारण बाधनात्मक दुःख का होना अनिवार्य रहता है । मिथ्या ज्ञान से दुःख जीवन पर्यन्त अविच्छेदन - निरन्तर प्रवर्तमान होता है । यही संसार शब्द का वाच्य है। यह घड़ी की तरह निरन्तर अनुवृत्त होता रहता है। प्रवृत्ति ही पुनः आवृत्ति का कारण होती है।(२२)” महर्षि गौतम के अनुसार “मिथ्या ज्ञान से राग - द्वेष आदि दोष उत्पन्न होता है। इन दोषों से प्रवृत्ति होती है तथा प्रवृत्ति से जन्म और जन्म से दुःख होता है (२३) न्याय और वैशेषिकों का मत है कि आत्मा व्यापक है। धर्म और अधर्म प्रवृत्तिजन्य संस्कार मन में निहित होते हैं। अतः जब तक आत्मा का मन के साथ सम्बन्ध रहता है तब तक आत्मा का पुनर्जन्म होता रहता है। सांख्य और योग दर्शन में यह मान्यता है कि “जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के परिणाम स्वरुप अनेक योनियों में भ्रमण करता है । (२४) सांख्य-योग चिन्तकों का सिद्धांत है कि शुभ और अशुभ कर्म स्थूल शरीर के द्वारा किये जाते हैं लेकिन वह उन कर्मों के संस्कारों का अधिष्ठाता नहीं है। शुभ और अशुभ कर्मो के अधिष्ठाता के लिए स्थूल शरीर से भिन्न सूक्ष्म शरीर की कल्पना की गयी है (२५) पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच तन्मात्रओं, बुद्धि एवं अहंकार से सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता है (२६) मृत्यु होने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है किन्तु सूक्ष्म शरीर वर्तमान रहता है। इस सूक्ष्म शरीर को आत्मा का लिंग भी कहते हैं, जो प्रत्येक संसारी पुरुष के साथ रहता है। यही सूक्ष्म शरीर पुनर्जन्म का आधार है। आत्मा के मुक्त हो जाने पर वह उससे अलग हो जाता है। मीमांसा दर्शन में न्याय - वैशेषिक की तरह मन को पुनर्जन्म का कारण मानकर पुनर्जन्म सिद्धांत की व्याख्या की गयी है । और वेदांत दर्शन में सांख्यों की तरह सूक्ष्म शरीर की कल्पना करके पुनर्जन्म का विश्लेषण किया गया है। T बौद्ध दर्शन के अनुसार “कुशल (शुभ) कर्म सुगति का और अकुशल - अशुभ कर्म दुर्गति का कारण है। ‘भव चक सम्बन्धी प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत के अनुसार “अविद्या और संस्कार ही हमारे पुनर्जन्म के कारण हैं। अविद्या का अर्थ है - अज्ञान। अवास्तविक को वास्तविक समझना, अनात्म को आत्म मानना अविद्या है। अविद्या - अज्ञान के कारण संस्कार होते हैं। संस्कार को मानसिक वासना भी कहते हैं । संस्कार से विज्ञान उत्पन्न होता है। विज्ञान वह चित्तधारा है जो पूर्व जन्म में कुशल - अकुशल कर्मों के कारण उत्पन्न होती है और जिसके कारण से मनुष्य को आँख, कान आदि विषयक अनुभूति होती है (२७) विज्ञान के कारण नामरुप उत्पन्न होता है । रुप को नाम और वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान को रुप कहते हैं। मन और शरीर के समूह के लिए नाम - रुप का प्रयोग किया जाता है। नाम रुप षड़ायतन को उत्पन्न करता है। पांच इंद्रियां और मन षडायतन कहलाता है । षडायतन स्पर्श का कारण है। इन्द्रिय और विषयों का संयोग स्पर्श है। स्पर्श के कारण वेदना उत्पन्न होती है। पूर्व इन्द्रियानुभूति वेदना कहलाती है । वेदना तृष्णा को उत्पन्न करती है । विषयों को भोगने की लालसा तृष्णा कहलाती है। तृष्णा उपादान को उत्पन्न करता है । सांसारिक विषयों के प्रति आसक्त रहने की लालसा उपादान है। उपादान भव का कारण है । भव का अर्थ है- जन्म
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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