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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
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कर्म - बंध से मुक्ति का उपाय :
कर्म बंधन से मुक्ति पाने के लिए दो उपायों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। प्रथम उपाय के द्वारा नवीन कर्मबंध को रोका जाता है, और दूसरी विधि के द्वारा आत्मा से पूर्वबद्ध कर्मों को अपने विपाक के पूर्व ही तपादि के द्वारा अलग किया जाता है। ये क्रमशः संवर और निर्जरा के नाम से जाने जाते हैं। आचार्य उमास्वामी जी के अनुसार - 'आस्रव निरोधः संवरः १६) अर्थात् कर्मों के आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं । आचार्य अकलंक देव ने तत्वार्थ वार्तिक में लिखा है कि जिस प्रकार नगर की अच्छी तरह से घेराबंदी कर देने से शत्रु नगर के अन्दर प्रवेश नहीं पा सकता है ठीक उसी प्रकार गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय और चारित्र द्वारा इन्द्रिय कषाय और योग को भली-भाँति संवृत कर देने पर आत्मा में आने वाले नवीन कर्मो का रुक जाना संवर है ।(१७)
आचार्य उमास्वामी जी ने तत्त्वार्थसूत्र में नये कर्म बंध को आने से रोकने के लिए सात उपायों की चर्चा की है (१८) वे इस प्रकार हैं - गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह जय, चरित्र और तप ।
निर्जरा - बंधन से छुटकारा पाने के लिए उपर्युक्त विधि द्वारा नये आने वाले कर्मों को रोकना चाहिए तथा पूर्व संचित या पुराने कर्मों के विनाश के लिए निर्जरा का अभ्यास करना चाहिए। आत्म-प्रदेशों से कर्मों का छूटना निर्जरा कहलाता है। आत्मा के साथ बंधे हुए पुराने कर्मों का क्षय करना निर्जरा का कार्य है (१९) कर्मों की निर्जरा दो प्रकार से होती है - ; पद्ध सविपाक और ;पपद्ध अविपाक निर्जरा (२०) यथा समय स्वयं कर्मों का उदय में आकर फल देकर अलग होते रहना सविपाक निर्जरा है । तपश्चरण के द्वारा कर्मों का आत्मा से अलग करना अविपाक निर्जरा है। अतिपाक निर्जरा ही मोक्ष का कारण है। मोक्ष स्वरुप निरुपण करते हुए आचार्य उमास्वामी जी ने कहा है कि - बंध के हेतुओं का अभाव होने से और पुराने कर्मों का निर्जरा होने से समस्त कर्मों का आत्मा से समूल अलग होने से ही मोक्ष प्राप्ति होती है। एक बार मोक्ष की प्राप्ति होने के बाद पुनः जन्म या पुनर्जन्म की आवश्यकता नहीं रह जाती है। आत्मवादी विचारकों के अनुसार पुनर्जन्म की व्याख्या- "
भारतीय विचारधारा में दो प्रकार के विचारों का वर्णन मिलता है। प्रथम विचारधारा के अनुसार 'आत्मा के पुनर्जन्म सिद्धांत' को मान्यता प्राप्त है लेकिन दूसरी विचारधारा के अनुसार पुनर्जन्म सिद्धांत को मान्यता प्राप्त नहीं है। प्रथम विचारधारा के पोषक - न्याय वैशेषिक, सांख्य, योग, बौद्ध और जैन दर्शन और दूसरी विचारधारा में चार्वाक, यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म को रखा जाता है। इनको एक जन्म वादी कहा जाता है। इनके अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा नष्ट नही होती है । वह न्याय के दिन तक प्रतीक्षा में रहती है और न्याय के दिन तत्सम्बन्धी देवता द्वारा उनके कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक भेज देते हैं।
न्याय - दर्शन के मतानुसार शुभ-अशुभ कर्म करने से इसके संस्कार आत्मा में पड़ जाते है। वैशेषिक मतानुसार राग-द्वेष से धर्म और अधर्म की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति सुख-दुःख को उत्पन्न करती है तथा ये सुख-दुख जीव के राग-द्वेष को उत्पन्न करते हैं।