SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 33 राग-द्वेष और मोह के कारण कर्म - रुपी रज आत्म- प्रदेशो में चिपक जाती है। अर्थात संसारी जीव के राग-द्वेष रुप परिणाम होते है और रागादि परिणामों से नवीन कर्मों का बन्ध होता है जिससे नरकादि गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। इन गतियों में जीव के जन्म ग्रहण करने पर उससे शरीर, शरीर से इन्द्रियाँ और इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण और विषयों के ग्रहण से राग-द्वेष परिणाम होते हैं और पुनः उन राग-द्वेष से कर्मों का बन्ध होता है। कर्म बन्ध की प्रक्रिया : संसार का प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों से बंधा हुआ है। कर्मों के उदय में इसके राग-द्वेषादि रुप भाव होते हैं तथा राग-द्वेषादि भावों के कारण पुनः कर्म बन्ध होता हैं इस प्रकार बीज और वृक्ष की भाँति कर्म बन्ध का क्रम अनादि काल से ही चला आ रहा है।' (९) कर्म बन्ध का हेतु आस्रव है। कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं । जीव के मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के निमित्त से कार्मण वर्गणाओं का कर्म रुप से परिणमन होना आस्रव है तथा आस्रवित कर्म-पुद्गलों का जीव के राग-द्वेष आदि विकारों के निमित्त से आत्मा के साथ एकाकार हो जाना ही बंध है। बंध आस्रव पूर्वक ही होता है । आस्रव और बंध दोनो युगपत होते हैं उनमें कोई समय भेद नहीं है (१०) आस्रव और बंध का यही सम्बन्ध है । सामान्यतया आस्रव के कारणों को ही बंध का कारण (कारण का कारण होने से ) कह देते है, किन्तु बंध के लिए अलग शक्तियाँ काम करती हैं। शरीर और आत्मा दोनो के संयोग से उत्पन्न क्रियात्मक शक्ति रुप सामर्थ्य जनित कम्पन के द्वारा आत्मा और कर्म परमाणुओं का संयोग - (आस्रव) होता है और आत्मा के साथ संयुक्त होकर कर्म योग्य परमाणु कर्म रुप में परिवर्तित हो जाते हैं । इस प्रकिया को कर्म-बंध की प्रकिया कहते हैं (१ कर्म-बंध के कारण : जैनाचार्य ने कर्म - बंध के लिए दो प्रमुख कारकों का नाम बताया है - १. योग और २. कषाय। योग शक्ति के कारण कर्म वर्गणाएं कर्म रुप से परिणत होती है तथा कषायों के कारण उनका आत्मा के साथ संश्लेष रुप एक क्षेत्रवगाह सम्बन्ध होता है (१२) जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में अज्ञान के साथ राग-द्वेष, मोह, मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग को बंध का कारण माना है ।(१३) रामसेन ने तत्त्वानुशासन में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र को बंध का कारण बताया है (१४) तत्त्वार्थ सूत्र में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच तत्वों को बंध का कारण बताया गया है (१५) विपरीत श्रद्धा या तत्त्व ज्ञान के अभाव को मिथ्यात्त्व कहते हैं । जीवादि पदार्थों का श्रद्धान न करना मिथ्यादर्शन है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरत न होना अविरति है । कुशल कार्यो के प्रति अनादर या अनास्था होना प्रमाद है। आत्मा के भीतरी वे कलुष परिणाम, जो कर्मों के श्लेश के कारण होते हैं या जीव के जिन भावों के द्वारा संसार की प्राप्ति हो वे कषाय भाव हैं। कोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय के चार भेद हैं। इनमें क्रोध और मान, द्वेष- रुप है तथा लोभ और माया, राग-रुप है। राग और द्वेष ही समस्त अनर्थो का मूल है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy