SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 32 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 प्रकार मनुष्य फटे, पुराने वस्त्रों को छोड़कर नवीन वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा भी अपने पुराने जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण कर लेता है। कर्म और आत्मा : प्राणियों के पुनर्जन्म में कर्म का महत्वपूर्ण योगदान है। जैन चिन्तकों ने यद्यपि आत्मा और कर्म का अपना-अपना स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया है फिर भी इनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीव और कर्म का बीज और वृक्ष की तरह कार्य - कारण सम्बन्ध है। कर्म से कषाय और कषाय से कर्म, यह परम्परा बीज और वृक्ष की तरह अनादि काल से प्रवाहित हो रही है और तब तक होती रहेगी जब तक संसार में जीवों का अस्तित्व है। षटड्खण्डागम' ग्रंथराज के अनुसार - 'यत् क्रियते तत् कर्म(२) अर्थात् किसी कार्य या व्यापार का करना कर्म कहलाता है। जैसे- पढ़ना, लिखना, सोना आदि क्रियाएँ कर्म है। जैन-साहित्य में कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड माना गया है। तदनुसार यह लोक तेईस वर्गणाओं से व्याप्त है। उनमें से कुछ पुद्गल परमाणु कर्म- रुप से परिणत होते हैं, उन्हें कर्मवर्गणा कहते हैं। कर्म बनने योग्य पुद्गल परमाणु राग - द्वेष से आकृष्ट होकर आत्मा की स्वाभाविक शक्ति का घात करके उसकी स्वतंत्रता को रोक देते हैं, इसलिए ये पुद्गल परमाणु कर्म कहलाते हैं। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार - “निश्चयनय की दृष्टि से वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा आत्म-परिणाम और पुद्गल के द्वारा पुद्गल परिणाम एवं व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के द्वारा पुद्गल परिणाम और पुद्गल के द्वारा आत्म-परिणाम करना कर्म है। (३) ___ अनादि कालीन कर्म - बंध से युक्त जीव जब रागादि कषायों से संतप्त होकर मानसिक, वाचिक या कायिक क्रिया करते है तब वह कार्मण वर्गणा के पुद्गल-परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं। जिस प्रकार लोहा चुम्बक की ओर आकर्षित होता है या जिस प्रकार अग्नि से संतप्त लोहे का गोला पानी में डालने पर चारों ओर से पानी खींचता है। ऐसे क्रियाओं के करने से आत्म, प्रदेशों में उसी प्रकार विक्षोभ या कम्पन होता है, जिस प्रकार तूफान के कारण समुद्र के पानी में चंचल तरंगें उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार आत्म प्रदेशों के परिस्पन्द होने को योग कहते हैं। योग के कारण ही कर्म-योग्य पुद्गल परमाणुओं का आत्मा की ओर आना ही आस्रव कहलाता है। अर्थात् पुण्य - पाप रुप कर्मों के आगमन को आस्रव कहते हैं। आस्रव जीव के शुभ - अशुभ कर्मों के आने का द्वार है। आस्रव के कारण परमाणु आकर आत्म - प्रदेशों में दूध और पानी की तरह मिल जाता है, तब वे कार्मण पुद्गल-परमाणु कर्म कहलाते हैं।५) परस्पर एक क्षेत्रवगाही होकर आत्मा और पुद्गल परमाणुओं का घनिष्ठ सम्बन्ध को प्राप्त होना ही कर्म है। कर्म और आत्मा के इस प्रकार के सम्बन्ध को बन्ध कहा जाता है।६ क्योकि कर्म आत्मा की स्वाभाविक शक्ति का घात करके इस प्रकार परतंत्र कर देते हैं कि आत्मा विभाव रुप से परिणमन करने लगती है।)
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy