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कर्म और पुनर्जन्म की व्याख्या
__ - डॉ० बसन्त लाल जैन संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की इच्छा करता है और दुःख से डरता है। इसलिए जिनेन्द्र देव ने दुःख को दूर करने वाली और शाश्वत सुख को उत्पन्न करने वाली शिक्षा को ही अपने उपदेश का विषय बनाया है। समीचीन सुख की प्राप्ति तभी सम्भव है जब बन्ध के हेतुओं का अभाव और निर्जरा द्वारा समस्त कर्मो का आत्मा से अलग होना निश्चित हो जाय।
कर्म का आत्मा के साथ संयुक्त होने से ही आत्मा विभिन्न योनियों तथा ऊँची- नीची गतियों में भ्रमण करता रहता है। प्राणी जो कुछ भी कर्म करता है, उन कर्मों का फल उसे भोगना ही पड़ता है। क्योकि कर्मों का फल कर्म करने वाले को दिये बिना नहीं रहता, यह उसका स्वाभाविक गुण है।
कर्म सिद्धान्त के अनुसार ही शुभ कर्मों का फल शुभ-दायक और अशुभ कर्मों का फल अशुभ दायक होता है। जब यह जीव राग - द्वेष से युक्त होता है तब वह नवीन कर्मों का बंध करता है और इन नवीन कर्मों के कारण ही उसे नरक, मनुष्य, तिर्यच और देव गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। इन गतियों में जीव के जन्म ग्रहण करने पर राग-द्वेष परिणाम होते रहते हैं और राग-द्वेष से कर्मो का बन्ध होता रहता है। जिससे प्राणी नरकादि गतियों में जन्म लेता है। इस प्रकार कर्म प्रवाह के फलस्वरुप नवीन जन्म होता रहता है। इस नवीन जन्म को ही पुनर्जन्म, पुनर्भव, जन्मांतर, भावान्तर, परलोक, पुनरुत्पत्ति आदि नामों से जाना जाता है।)
कर्म सिद्धांत का यह नियम है कि प्राणी जो भी कर्म करता है उसके फल को भोगने के लिए उसे दुबारा जन्म लेना पड़ता है, क्योंकि पूर्वकृत कर्म- फल पूर्व जन्म में पूरा नहीं हो पाता है। अर्थात् कुछ कर्म इस प्रकार के होते हैं जिनका फल इस जन्म में - (वर्तमान पर्याय) में मिल जाता है और कुछ कर्म इस प्रकार के होते है जिनका फल इस जन्म में नहीं मिलता है, इसलिए अगला जन्म- (पुनर्जन्म) लेना पड़ता है। जिन कर्मो का फल वर्तमान जन्म में फलित नहीं होता है, उसको भोगने के लिए उचित समय पर वर्तमान शरीर का त्याग करके नवीन शरीर धारण करना पड़ता है। यह पुनर्जन्म कहा जाता है। इस पुनर्जन्म में जो आत्मा पूर्व पर्याय में रहती है वर्तमान शरीर को त्याग करने को मृत्यु और नवीन शरीर धारण करने को जन्म कहा जाता है। इस जन्म और मृत्यु के बीच आत्मा सदा एक सी रहती है।
यहाँ पर मृत्यु का मतलब स्पष्ट है कि वर्तमान शरीर जर्रर या रोगी होने पर या आयुपूर्ण होने पर उस शरीर में रहने वाला आत्मा उस शरीर को त्याग देता है
और शेष कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा नवीन शरीर धारण कर लेता है, इस प्रकार आत्मा का नवीन शरीर धारण करने को पुनर्भव कहा गया है। व्यावहारिक भाषा में जिस