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________________ 30 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 वैशेषिक - नील और नीलवान् का सर्वथा भेद मानने पर भी नील रंग से धुले हुए पानी में डुबा दिए गए वस्त्र में संयुक्त हो गए नीली द्रव्य में नील गुण का समवाय हो रहा है। अतः कपड़ा नीला ही है, यह प्रत्यय संयुक्त समवाय सम्बन्ध से सुघटित हो जाता है। नील गुण नील में रहा और वस्त्र में नील संयुक्त हो रहा है। ___ जैन - इस प्रकार तो आत्मा, आकाश आदि में भी नीलपने के ज्ञान हो जाने का प्रसंग आएगा। नील द्रव्य उन आकाश आदि के साथ संयुक्त हो रहा है, अतः संयुक्त समवाय सम्बन्ध से वस्त्र के समान आत्मा आदि भी नीले हो जायेंगे, जो कि इष्ट नहीं है। वैशषिक - उन आत्मा, आकाश आदि के साथ नील द्रव्य का विशेष जाति का संयोग नहीं है, केवल प्राप्ति हो जाना मात्र सामान्य संयोग है। पट के साथ नील द्रव्य का विशेष संयोग है जो कि हर्र, फिटकरी, पानी और पट की स्वच्छता, आकर्षकता आदि कारणों से विशेष जाति का हो जाता है। अतः आत्मा नील है, यह प्रसंग नहीं आने पाता है। जैन - वह संयोग की विशेषता तिस परिणमन हो जाने के अतिरिक्त दूसरी क्या हो सकती है? अर्थात् पट की नीलस्वरूप परिणति है और आत्मा या आकाश की नील परिणति नहीं है। संयोग हो जाने पर पुनः बन्ध परिणति अनुसार पट में भी नील का समवाय हो जाता है, किन्तु आत्मा के साथ नील द्रव्य की बन्ध परिणति नहीं हो पाती है। ___वैशेषिक के यहाँ कर्त्तापन, करणपन नहीं बन सकता है - वैशेषिक के यहाँ सर्वथा नित्य आत्मा के बुद्धि आदि चौदह गुण सर्वथा भिन्न माने गए हैं। जब तक आत्मा पूर्व अतिशयों का त्याग कर उत्तर स्वभावों का ग्रहण नहीं करेगा, तब तक उसके कर्त्तापन, करणपन नहीं बन सकते हैं। परिणामी जल में तो अग्नि का सन्निधान हो जाने पर शीत अतिशय की निवृत्ति और उष्ण अतिशय का प्रादुर्भाव हो जाता है। नैयायिक या वैशेषिक के यहां आत्मा को परिणामी नहीं माना गया है तिस ही कारण से दुःख, शोक आदि की उत्पत्ति में मन भी करण नहीं हो सकता है; क्योंकि करण मानने पर मन को सभी प्रकार के अनित्यपने का प्रसंग आयेगा। कर्त्तापन या करणपन के समान आत्मा के आत्मा के दुःखों का अधिकरणपना भी नहीं बन पाता है; क्योंकि जब तक पहिले के उस दुःख के अधिकरणपन स्वभाव का त्याग नहीं किया जायेगा, तब तक उस दुःख के अधिकरणपन स्वभाव का विरोध है। यदि पहिले के अकर्तापन, अकरणपन, अनधिकरणपन स्वभावों का त्याग माना जाएगा तब तो वैशेषिकों के यहां सर्वथा नित्यपन के नष्ट होने की आपत्ति आ जाएगी। इस प्रकार सिद्ध हुआ कि नित्यानित्यात्मक आत्मा में दुःख आदि परिणतियाँ संसार अवस्था में हो रही हैं। प्रकृति, बुद्धि या अपरिणामी आत्मा, नित्यात्मा अथवा अन्य जड़ पदार्थों में दुःख, शोक आदि परिणाम सम्भव नहीं है। ___ इस प्रकार तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में विभिन्न दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में कर्मास्रव की मीमांसा कर जैनदर्शन को परिपुष्ट किया गया है। सन्दर्भ - पेज ३९ देखे *****
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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