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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 अद्वैतवादी - गगन आदिक तो उन ज्ञान आदिकों के विरुद्ध नहीं है, अतः वे उनके आवरण नहीं हो सकते हैं। जैन - तिस कारण से यानी ज्ञानादिक का विरोधी नहीं होने से मूर्त शरीर भी ज्ञान आदि का आवारक नहीं है। जो उन ज्ञान आदि से विरुद्ध पदार्थ होगा, उसी को उन ज्ञान आदिकों के आवारकपन की सिद्धि है। मदिरा, भाँग आदि द्रव्यों के समान उन पौद्गलिक कर्मों को भी उन ज्ञान आदिकों के विरोधीपन की प्रतीति हो रही है। सभी पुद्गल न तो ज्ञान के सहायक हैं और न विरोधी। अनेक पुद्गलों से सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्रों को सहायता होती है और कितने ही पौद्गलिक पदार्थों से मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रों को सहायता मिलती है, कोई एकान्त नहीं है। ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक कर्म अवश्य ही ज्ञानादि गुणों के आवारक हैं यह निर्णित विषय है। न्यायवैशेषिक मीमांसा - जैनों के अनुसार जीव का सब ओर से परतन्त्रपना (पक्ष) कषायों को हेतु मानकर उपजा है (साध्य), अन्य प्राणियों की अपेक्षा नहीं रखता हुआ परतन्त्रपना होने से (हेतु)। जैसे कि यहाँ लोक में कमल के मध्य में प्राप्त हुआ चक्षुरिन्द्रिय विषय लोलुपी भ्रमर अपनी लोभ कषायों के अनुसार परतन्त्र हो रहा है (अन्वय दृष्टान्त)। कषायों के उदय रूप से विशेषतया निवृत्ति हो जाने पर परतन्त्रता निवृत्त हो जाती है, जैसे कि यहाँ जगत् में किसी एक जीव के कषायों की शान्त अवस्था के समय में परतन्त्रता नहीं पायी जाती है१४ (व्यतिरेक दृष्टान्त)। इस प्रकार अन्वय व्यतिरेक द्वारा जीवों की पराधीनता का कारण कषायों का उदय सिद्ध है। ___ वैशेषिक या नैयायिक - संसारी जीव की परतन्त्रता तो महेश्वर की सृजन करने की इच्छा की अपेक्षा रखने वाली है, अतः अन्य जीवों की अपेक्षा नहीं रखनापन हेतु का विशेषण पक्ष में नहीं रहा, अतः असिद्ध दोष हुआ। जैन - संसारी जीवों के महेश्वर या ईश्वर की सिसृक्षा के अपेक्षी होने का खण्डन किया गया है; क्योंकि कार्यत्व, अचेतनोपादानत्व, सन्निवेशाविशिष्टत्व आदि सभी हेतु दूषित हैं। आप्त परीक्षा में कर्तृवाद का निराकरण किया गया है। जैनों का कहना है कि जिस प्रकार नील द्रव्य का नील गुण उस पट में भी नील बुद्धि को करता हुआ नीला बना देता है, इस कारण उस पट को उस नील का अधिकरणपना प्राप्त है, उसी प्रकार संरम्भ आदिकों में जो आस्रव हो रहा है, वह जीवों में ही आस्रव हैं, इस कारण जीव के परिणाम के संरम्भ आदिक ही आस्रव के अधिकरण हैं यों कहने पर भी वे जीव आस्रव के अधिकरण हो जाते हैं। “अधिकरणं जीवाजीवाः" इस सूत्र में जीव पद का ग्रहण करने से जीव के परिणामों का ग्रहण हो जाता है। जीव और जीव परिणामों में कथंचित अभेद है। अतः जीव भी आस्रवों के अधिकरण हैं, यह युक्तियों से सिद्ध हो जाता है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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