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________________ 28 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 अधिकरण आदि हैं। बौद्धों का यह मत ठीक नहीं है; क्योंकि दुःख आदि चित्त स्वरूप कर्त्ता के चक्षु आदिक करण और अधिकण नहीं हो सकते। इसका कारण यह है कि बौद्धों के यहाँ विज्ञान से बाहर हो रहे रूप आदि के ज्ञान की उत्पत्ति में उन चक्षुरादि के करणपन का कथन किया गया है तथा मन भी करण नही हो सकता; क्योंकि दुःखादि चित्त के उसी समान काल में उस अनन्तर अतीत विज्ञान स्वरूप मन संभव नहीं है। बौद्ध - रूपादि स्कन्धपञ्चक की युगपत् उत्पत्ति होती रहती है, जब कि पांच विज्ञानों की धारायें चल रही हैं तो दुःख, शोक आदि के अनुभव स्वरूप पूर्व समयवर्ती वेदना स्कन्ध को उत्तर समयवर्ती दुःख आदि की उत्पत्ति में कर्त्तापन है और उसी वेदना स्कन्ध को दुःख आदि की उत्पत्ति में अधिकरणपना है। सबको स्व में अपना अधिकरणपना प्राप्त है। दुःख आदि के हेतु हो रहे बहिरंग अर्थ विज्ञान स्वरूप वेदना स्कन्ध को करणपना समुचित है, जो कि वेदना स्कन्ध उत्तर समयवर्ती उस कार्य से पूर्व समय में वर्त रहा होकर मन इस नाम निर्देश के योग्य हो रहा है। __ जैन - यह नहीं कहना चाहिए; क्योंकि अन्वयरहित होकर नष्ट हो चुके वेदना स्कन्ध के कर्त्तापन और करणपन का विरोध है। उत्तर समयवर्ती अपने कार्य के काल में पूर्व समयवर्ती उस वेदना स्कन्ध स्वरूप कर्त्ता या करण का नाश नहीं माना जाएगा, तब तो बौद्धों के यहाँ पदार्थों के क्षण में नष्ट हो जाने रूप स्वभाव का भंग हो जायगा, जो कि बौद्धों को कथमपि सहन नहीं है। ब्रह्माद्वैत मीमांसा - तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि ज्ञान और दर्शन में किए गए प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव हैं। इस पर ब्रह्माद्वैतवादी शंका करते हैं - __शंका - जिस जीव के जिस विषय में हो रहे प्रदोष, निन्हव आदि दोष हैं, उसके उन विषयों का आवरण कर रही अविद्या ही है, फिर उन गुणों का आवरण करने वाला कोई कार्मण स्कन्ध स्वरूप पुद्गल सिद्ध नहीं हो पायेगा, जिस कारण उस ज्ञान या दर्शन में हुए प्रदोष आदिकों से ज्ञान और दर्शन का आवरण करने वाले ज्ञानावरण पुद्गलों की प्रसिद्धि नहीं हो सकती। अमूर्त हो रहे ज्ञान, दर्शन आदि आवरण करने वाला मूर्त कर्म किस प्रकार हो सकता है? मूर्त सूर्य के ही मूर्त बादल आवरक हो सकते हैं। घर की दीवालें या छतें मूर्त शरीर, भूषणों, वस्त्रों को छिपा लेती हैं, आकाश को नहीं। ___ समाधान - ऐसा कहने पर हम जैन भी प्रश्न उठायेंगे कि आपके यहाँ वे अविद्या, भेद विज्ञान मोह आदिक अमूर्त होते हुए किस प्रकार एकत्व ज्ञान, प्रतिभासाद्वैत आदि का आवरण कर देते हैं? अमूर्त अविद्या आदि का सद्भाव होने पर ज्ञान आदिकों का आवरण होना मानोगे तो अमूर्त आकाश को भी उन ज्ञान आदिकों के आवरकपन का चारों ओर से प्रसंग आ जावेगा अथवा अमूर्त ज्ञान का दूसरा अमूर्त ज्ञान आवारक बन बैठेगा।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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