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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
“नित्यशुद्धस्वभावत्त्वाज्जीवस्यकर्मपारतन्त्र्यमसिद्धमिति चेन्न, तस्य संसाराभावप्रसंगात्। प्रकृतेः संसार इति चेन्न, पुरुषकल्पना वैयर्थ्यप्रसंगात् तस्या एव मोक्षस्यापि घटनात्। न च प्रकृतिरेव संसारमोक्ष भागचेतनत्वात् घटवत्। चेतन संसर्ग विवेकाभ्यां सा तद्भागेवेति चेत्। तर्हि यथाप्रकृतेश्चेतनसंसर्गात्पारतन्त्र्यलक्षणः संसारस्तथा चेतनस्यापि प्रकृति संसर्गात् तत्पारतन्त्र्यं सिद्धं, संसर्गस्य द्विष्ठत्वात्।”
सांख्य - संसार अवस्था में प्रकृति परतन्त्र हो रही है, किन्तु वह परतन्त्रता कषायों को हेतु मानकर नहीं उपजी है। कषायें तो जीव के हो सकती हैं, जड़ प्रकृति के नहीं।
जैन - ऐसा नहीं मानना चाहिए। आपके यहाँ क्रोध, रण, द्वेष, मोह आदि कषायों को प्रकृति का परिणाम कहा है। प्रसन्नता, लाघव, राग, द्वेष, मोह, दीनता, शोक ये सब सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण वाली प्रकृति के परिणाम माने गए हैं, अतः उस प्रकृति के परतन्त्रपन का कषाय नामक हेतुओं से उपजना सिद्ध हो जाता है। जैनों के यहाँ क्रोध आदि को आत्मा का विभाव परिणाम कहा है। निश्चय नय की अपेक्षा क्रोध आदि को पुद्गल का विकार कह दिया है। यह स्याद्वाद की अपेक्षा घटित होता है। सांख्य के नित्यैकान्त में दुःख, शोक आदि में कर्त्तापन, करणपन संगत नहीं है -
सांख्यमत में शक्तियाँ, स्वभाव, परिणति स्वरूप अतिशयों से रहित हो रहे आत्मा का कर्त्तापन स्वीकार नहीं किया गया है। क्रिया में स्वतन्त्र होकर व्यापार कर रहा पदार्थ कर्ता कहा जाता है। अतिशयों से रहित कूटस्थ पदार्थ कर्ता नहीं हो सकता है। किसी एक सहकारी कारण से उस कर्त्ता में अतिशय किया माना जाएगा तो प्रश्न उठता है कि वह अतिशय कर्ता से भिन्न किया गया है या अभिन्न किया गया है। प्रथम पक्ष के अनुसार सहकारी कारण कर यदि कर्ता से भिन्न अतिशय का किया माना जाएगा तो उस कर्ता की पूर्ववर्तिनी अकर्त्तापन अवस्था से प्रच्युति नहीं होने के कारण कर्त्तापन का विरोध है। द्वितीय पक्ष के अनुसार सहकारी कारणों का उस आत्मा से अभिन्न अतिशय किया माना जाएगा तो उस आत्मा का ही किया जाना होने से आत्मा का अनित्यपना ही हो जाएगा। कथंचित् नित्यपना इष्ट करोगे तो दूसरे स्याद्वादियों के मत का आश्रय लेना दुर्निवार है।
इस कथन से प्रधान के परिणाम महत् आदि के कारणत्व का निराकरण कर दिया। स्याद्वाद का आश्रय लिए बिना किसी परिणाम की प्राप्ति नहीं होती है। इस प्रकार महत्तत्व आदि का अधिकरणपना अथवा कर्मपना सिद्ध नहीं हो सकता है। ___ बौद्धमत मीमांसा - बौद्धों के यहाँ चक्षुरादिकरण तथा शरीरादि अधिकरण श्रेय नहीं है, क्योंकि उनकी दुःख आदि काल में स्थिति नहीं है। यदि बौद्धों का यह मन्तव्य हो कि दुःख आदि चित्त ही अपने कार्य करने में कर्ता हैं और उस कर्ता के उसी समान समय में वर्त रहे चक्षु आदि करण हैं तथा तत्कालीन क्षणिक शरीर अधिकरण हो जाता है। केवल व्यवहार से कर्ता, करण, अधिकरण भाव हैं, पारमार्थिक रूप से न कोई कर्ता है, न कोई करण,