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________________ 26 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 ण विकुच्चउि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्ण णिमित्तेण दुपरिणाम जाण दोण्हंपि॥ एदेण कारणेण दुकत्ता आदा सएण भावेण। पुग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं॥ - समयसार ८६-८८ जीव के (रागी द्वेषी) परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य कर्मत्व रूप परिणमन करता है। वैसे ही पौद्गलिक कर्मो के उदय का निमित्त पाकर जीव रागादि रूप परिणमन करता है। तथापि जीव कर्म के गुण रूपादिक को स्वीकार नहीं करता, उसी भांति कर्म भी जीव के चेतनादि गुणों को स्वीकार नहीं करता, किन्तु मात्र इन दोनों का परस्पर एक दूसरे के निमित्त से उपर्युक्त विकारी परिणमन होता है। इस कारण से वास्तव में आत्मा अपने भावों से ही अपने भावों का कर्त्ता होता है, किन्तु पुद्गल कर्मों के द्वारा किए गए सर्व भावों का कर्ता नहीं है। सांख्यकारिका में कहा गया है - तस्मान्न बध्यते अद्धा न मुच्यते नाऽपि संसरति कश्चित्। संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः॥ सां. का. ६२॥ इसलिए वस्तुतः किसी पुरुष का न तो बन्धन और न संसरण ही होता है और न मोक्ष ही। अनेक पुरुषों के आश्रय से रहने वाली प्रकृति का ही संसरण, बन्धन और मोक्ष होता है। सांख्य की इस मान्यता का जैनाचार्यों ने खण्डन किया है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य गृद्धपिच्छ ने कहा है कि कषाय सहित जीव के साम्परायिक और कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है। इस पक्ष की असिद्धि को दिखलाते हुए सांख्य विद्वान् कहते हैं कि जीव सर्वदा शुद्धस्वभाव है। शुद्ध, उदासीन, भोक्ता, चेतयिता तथा द्रष्टा आत्मा हमारे यहाँ माना गया है। अतः जीव का कर्मों से परतन्त्रपना सिद्ध नहीं है। इस कारण जैनों का हेतु आश्रयसिद्ध है। आचार्य विद्यानन्दि के अनुसार यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि नित्य ही शुद्ध आत्मा मानने पर जीव के संसार का अभाव होने का प्रसंग आएगा। यदि सांख्य कहता है कि प्रकृति का ही संसार है तो यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा की कल्पना व्यर्थ होने का प्रसंग आने पर मोक्ष भी उस प्रकृति का होगा। सभी पुरुषार्थों को प्रकृति करेगी तो आत्मतत्त्व की कल्पना व्यर्थ है। आप यह नहीं समझना कि प्रकृति ही संसार और मोक्ष को करने वाली है; क्योंकि वह अचेतन है, घट के समान। प्रश्न- चेतन पुरुष का संसर्ग हो जाने से वह प्रकृति ही उस संसार अवस्था को धार लेती है। उत्तर- जिस प्रकार चेतन का संसर्ग हो जाने पर प्रकृति का आत्मा के परन्तत्र हो जाना स्वरूप संसार होना माना गया है, उसी प्रकार प्रकृति का संसर्ग हो जाने से चेतन आत्मा का भी उस प्रकृति के पराधीन हो जाना स्वरूप संसार सिद्ध हो जाता है; क्योंकि संसर्ग में अवश्य ठहरता है। जैसा कि कहा है -
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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